Friday, December 20, 1996

जन्म न लेना भारत में।

ऐ आने वाली पीढ़ियों!
तुम जन्म न लेना भारत में।
माँ की कोख में मर जाना तुम
और रहना राहत में,
पर जन्म न लेना भारत में।

क्योंकि मिलेंगे तुम्हें वो पूर्वज,
सौ चूहे खा कर जो करते थे हज।
ज़लील कहने में भी उन्हें शर्म आएगी
क्योंकि जलील शब्द की चली जाएगी इज़्ज़त।

तुम्हारा अतीत शर्म से तुम्हें जीने न देगा,
और व्यक्तित्व अपमान का घूँट पीने न देगा।
साँप छुछुंदर सी स्थिति होगी तुम्हारी,
'भारतीयता' का कलंक कहीं का रहने न देगा।

इतिहास की पुस्तकें देंगी घोटालों की लिस्ट,
मिलेंगे घोटालों के खिलाड़ी एक से एक हिट।
जानोगे तुम कि लोकतंत्र में सरकारें बनती थीं,
और तेरह दिनों के भीतर जाती थीं पिट।

मिलेगा तुम्हें अतीत में वह 'उन्नत समाज',
जहाँ आदमी नहीं रहा करते थे बाज,
जहाँ जनता के रक्षकों के पास होता था
मौत की धुनें बजाने वाला कोई साज।

जहाँ बाजारों में दूल्हे बिका करते थे,
लोग 'प्रेम' का हिसाब लिखा करते थे।
और बच्चे अपने माँ-बाप से
यही सामाजिकता सीखा करते थे।

और कितना कुछ कहूँ, तुम ही बताओ
चाहती हूँ, इतना सा ही तुम जान जाओ,
अगर ज़िन्दग़ी जीनी ना हो तुम्हें लानत में
तो फिर कभी भी जन्म न लेना भारत में।

Monday, December 09, 1996

जीवन और मन

कुछ घटनाएँ जो छू जाती हैं कहीं अंतर्मन को,
ज़रूर कभी-कभी प्रभावित करती हैं जीवन को।

प्यार के बदले में एक चाँटा.
कभी धैर्य का पाठ है पढ़ाता,
कभी विद्रोह का सबक बन जाता,
और मन को कहीं है छू जाता।

अनपेक्षित प्यार भरी एक चपत,
कभी बन जाती है जीवन की हिम्मत,
कभी लगती है कोई बनावट,
दे जाती है मन को कोई हरकत।

छाँव की खोज में मिलने वाली एक धूप,
कभी ले लेती है चुनौती का रूप,
कभी लगती है दुर्भाग्य-सी कुरूप,
मन को ये झकझोरती है खूब।

निराशा की धूप में आशा का पेड़,
कभी-कभी देता है शीतल छाँव घनेर,
कभी लगता है पर बनावटी एक खेल,
मन को चंचलता दे जाता है ढेर।

दोस्तों की खोज में मिलने वाले दुश्मन,
कभी तो नहीं देते चेहरे पर कोई शिकन,
कभी वो ही हो जाते हैं जीवन की उलझन,
और उलझता चला जाता है मन।

Thursday, November 21, 1996

प्रतिबंधित

अक्सर मेरी उठी हुई कलम रुक जाती है,
पुनः उसे चलाने में मेरी शक्ति चुक जाती है।
सामाजिक बंधन रोक लेते हैं मेरी कलम को,
वे ही बंधन जो भंग करते हैं दिल के अमन को,
जिनके ख़िलाफ़ मैं हूँ लिखना चाहती,
पर ये कलम उन्हीं के डर से रुक जाती।
जब तक मैं गुमनाम थी,
समाज के लिए अनजान थी,
तब तक मेरी कलम आज़ाद थी,
लिखने में करती ना कोई विवाद थी।
और आज इसे जकड़ चुकी हैं सामाजिक मान्यताएँ,
और यह डरती है कि लिखते हुए कुछ अधिक न लिख जाए।


कलम समाज के अनुसार चलती है, पर दिमाग़ उतना ही नहीं सोचता,
कलम बँधने के लिए झुक जाती है, पर दिल को यह नहीं रुचता।
फिर दिल-दिमाग के गठजोड़ का मुक़ाबला होता है मेरे अंदर के भय से,
सामान्यतः युद्ध का निर्णय होता आया है पराजय और विजय से,
इस युद्ध का हश्र क्या होता है, ये तो मैं नहीं जानती,
पर भय हारता है, इतना तो मैं हूँ मानती,
क्योंकि जगने पर मिलता है मुझे कलम पर एक लेबल,
सारे प्रश्नों का जवाब देने में समर्थ होता है वह केवल,
'प्रतिबंधित'
क्योंकि इसी में है सभी का हित।

Thursday, November 07, 1996

मेरा नाम आदमी

मुझे याद है कि बचपन में,
धर्म और जाति की उलझन में,
मैंने माँ से पूछा था,
"माँ! बताओ मेरा धर्म है क्या?"
जाति भी मैंने पूछी थी,
पर वह मुझसे नहीं रूठी थी।
शान से सर उठाकर उसने था बताया,
"हिन्दू घर में बेटी तूने जन्म है पाया।
बेटी! तू एक ब्राह्मण घर से सम्बद्ध है,
यह समाज तुझे देवी मानने को कटिबद्ध है।"
काश! उस वक़्त बताया होता मुझे,
"मानवता का धर्म मिला है तुझे,
और भारतीयता है तेरी जाति"
काश! लिखी जाती दिल पर एक अमिट पाती।

कभी एक बुजुर्ग ने एक इन्सान था दिखाया,
और कुछ इस रूप में उससे परिचय था करवाया,
"इसने तुझसे पहले माँ की कोख से जन्म है पाया,
इसलिए ये तेरा सगा भैया कहलाया।"
काश! उन्होंने मुझे बताया होता,
कानों में प्रेम का मंत्र ये गाया होता,
"इन्सान हैं इस विशाल विश्व में जितने,
सभी के सब हैं तेरे सगे अपने।"
काश! इन्सानियत का पाठ पढ़ाया होता,
तो आज इन्सान बनकर मैंने भी दिखाया होता।

याद है मुझे कभी बचपन में,
बाँट कर खेले थे मैंने सारे खिलौने।
डाँट पड़ी थी मुझे कितनी फिर घर में,
सिखाया था कि न जाना उनके संग खेलने।
फिर 'क्यों' का जवाब कुछ मिला था मुझे ये,
"मुस्लिमों के संग रह च्युत होना न धर्म से।"
काश! मुझे उस वक़्त प्रोत्साहन मिला होता,
किसी को फिर कट्टरता का मुझसे आज न ग़िला होता।
ज़रूरत ना होती मुझे फिर आज ये कहने की,
"स्वार्थ से बनी मैं मेरा नाम आदमी"

Thursday, October 17, 1996

एक और क्रांति

एक क्रांति है हो रही रुकने नहीं देना है,
जो गौरव है खो चुका वापस फिर लेना है।
बस एक चाहिए प्रयास ताकि ज़ुल्मों का अंत हो,
क़यामत के प्रश्नों में हर राष्ट्रद्रोही बंद हो।
पर्दा है खुल रहा सटने नहीं देना है,
जो गौरव है खो चुका वापस फिर लेना है।

ऐ गद्दी के मलिक! इस क्रांति को दबाओ मत,
एक स्वप्न जो है दिख रहा, उसे तुम मिटाओ मत।
क्या नहीं हुए आज तक तुम ज़ुल्म के शिकार?
रोता नहीं हृदय तुम्हारा सुनकर हाहाकार?
एक चिंगारी जो भड़की है उसे बस बुझाओ मत,
आगे बढ़ने वालों के पीछे को भगाओ मत।

यदि रोकोगे तो कर लो तुम्हें जो भी कर लेना है,
मार्ग के हर गड्ढे को भर हमें भी देना है।

आगे बढ़ना चाहती है आज धरा की ये बेटी,
जोश भरने के लिए लेकर चूसित खून की पेटी।
ऐ राष्ट्र! ऐ समाज! इसे रोकना नहीं,
साथ नहीं दे सकते तो टोकना नहीं,
है शोषणों के पालने में बचपन से ये लेटी,
बर्दाश्त नहीं होगी इससे अब तुम्हारी ये हेठी।

एक दीपक से ज्वाला बना इसे देना है,
आमंत्रित हैं वो जिन्हें दायित्व ये लेना है।

एक और क्रांति अपना संदेश तुम्हें दे रही,
कमल लाल और एक रोटी तुम्हें दे रही,
जान के डर से पीछे कभी भी हटना नहीं,
कर ऐसा राष्ट्रद्रोही तुम एक और बनना नहीं,
आओ सदी के अंत की क्रांति तुम्हें बुला रही,
स्वप्न मुक्ति का तुम्हें एक और है दिखा रही।

इस स्वप्न को साकार तुम्हें कर के दम लेना है,
जो गौरव है खो चुका वापस फिर लेना है।

Monday, October 14, 1996

दिल और दिमाग़

"चल बारिश में भींगे", दिल ने कहा।
दिमाग़ बोला, "भीगे कपड़े सुखाओगी कहाँ?"
दिल के फ़ैसलों को हमेशा दिमाग़ रोकता है,
जबकि दिल पहले से है, दिमाग़ समय के साथ हुआ।

दिल चाहता है कल्पना की ऊँची ऊँची उड़ाने भरना,
दिमाग़ चाहता है पहले रक्षा कवच बनाना।
दिल चाहता है मौज मनाना,
दिमाग़ चाहता है भविष्य बनाना।

दिल-दिमाग़ के इस संघर्ष में जब-जब दिमाग़ विजयी घोषित हुआ है,
एक नया सितारा सभ्यता का उदित हुआ है।
उस-उस समय मनुष्य ने प्रगति की है,
और अपने दुश्मनों की दुर्गति की है।
तब-तब उसके माथे पर शोहरत का टीका चमका है।
तब-तब क्रांति की कांति से वह तेजस्वी और दमका है।

लेकिन जब-जब वह दिमाग़ दिल पर हावी होता जाता है,
तब-तब मानव मानवता की पहचान खोता जाता है।
उस समय किसी कवि का उदर अपनी ही कविता को खा जाता है,
अपने गानों को कोई गायक तब ख़ुद ही भूल जाता है।

तब आदमीयत का क़त्ल होता है, इंसानियत की जाती है जान,
एकादशी आती नहीं, चैन से सोते हैं भगवान।
तब भावनाओं का रह नहीं जाता है कोई मूल्य,
और तब तब यह धरती हो जाती है नर्क तुल्य।
तब-तब भावनाओं पर की चोट से भड़कती है प्रकृति के क्रोध की चिंगारी,
तब उस गर्मी में पिघल जाती है पृथ्वी पर की बर्फ सारी।
तब आता है प्रलय का काल,
करने को पृथ्वी का संहार।
फिर होता है वाराह अवतार,
करने को पृथ्वी का उद्धार,
कोई एक मनु बचता है,
विश्व एक नया रचता है।

फिर दिलयुक्त, दिमाग़हीन मानव आता है,
कुछ दिन शांति के गीत गाता है,
और फिर जब वह दिमाग़ पाता है,
यही इतिहास खुद को दोहराता है।

Friday, October 04, 1996

बादल से आग्रह

ओ बादल! हार मानी है तुमसे कई रवियों ने,
महिमा गाई है तुम्हारी कई कवियों ने।

सुना है कि एक बार एक प्रेमी का व्यथा,
सुनाई थी जाकर उसकी प्रेमिका को उसकी कथा,
आज मैं भी अपना एक संदेश विश्व को सुनाना चाहती हूँ,
और उस संदेश के वाहक के रूप में तुम्हें पाना चाहती हूँ।
जाओ, आज दुनिया वालों को मेरा संदेश दे दो,
"दुनिया वालों! भावी पीढ़ीयों को उनके प्रेम-पूरित देश दे दो।"
उनसे कहो कि हैवानियत की राह से वापस हो जाएँ,
उस वक़्त से पहले जब इन्सानियत सो जाए।

मेघ! तेरे जल की तुलना लोगों ने आँसू से की है,
देख ले आज इन आँखों में आँसू भी हैं,
आ, मेरी आँखों के आँसू ले ले,
और वर्षा के द्वारा पूरी दुनिया को दे दे,
मानवता की विदाई पर निकलने वाले10
आँसू से तू पूरी दुनिया ही भिगो दे।
जा हवा के साथ तू मानवता की ओर,
और लाकर वह उपहार मानवों को दे दे।

Thursday, October 03, 1996

मुझे किसी अनजान की याद आती है

कौन कहता है कि अनजान व्यक्ति महत्वहीन है?
उसका महत्व उससे पूछो जो कि ग़मगीन है।

जब जब ग़मों में डूबी रहने पर भी
चारों ओर से मुसीबतें ही आती हैं,
तब तब किसी सच्चे साथी की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब जीवन में भटकाव महसूस होता है,
और फिर सँभलने की बारी आती है,
तब तब मजबूत सहारे की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब सर पर किसी का हाथ नहीं होता
और जीवन की धूप तेज हो जाती है,
तब तब एक शीतल छाया की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब ज़िन्दग़ी को ढोने में
कंधों की शक्ति क्षीण हो जाती है,
तब तब मजबूत कंधों की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब कोई गलत राह चुन जाती हूँ
और आत्मा ख़ुद की ही धिक्कार पाती है,
तब तब हार्दिक सांत्वना की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब मेरी आत्मा और इन्द्रियाँ
समाज के विपरीत चलना चाहती हैं,
तब तब एक सही सलाहकार की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

जब जब किसी से डरकर सहमकर
आत्मा ठिठक कर खड़ी रह जाती है,
तब तब आंतरिक शक्ति की खोज में
मुझे किसी अनजान की याद आती है।

Monday, September 30, 1996

गुलाब

वह नन्हा अमरीकन बना था हमारे लिए शो-पीस
उसे दिखाने के लिए ला रहे थे एक-दूसरे को खींच-खींच।

वह भोला अज्ञान नहीं जानता था, यह उसके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है,
वह उस धरती पर खड़ा है, जिसके नाम को उसके नाम से कभी नहीं हटना है,
वह धरती जिसे उसके पूर्वजों ने बसाया है,
न जाने सुकर्म से या कुकर्म से उसने इसे गँवाया है।

अभी तो उसकी वाणी प्रस्फुटित नहीं हो रही थी,
पर उसकी हरकतें संकेतों में मुझसे कह रही थीं,
वह डर रहा था काले भारतीयों से,
उसे अपनापन मिला था सफ़ेदपोश विज्ञान-रथियों से।

मैं नहीं जानती कि कल उसे भारतीय होने की शर्म होगी या नहीं,
पर मानती हूँ कि भारतीयता की भावना उसमें रहेगी नहीं,
आज वह भाषा की दीवारों से मुक्त है, पर कल वह हिन्दी नहीं जानेगा,
जहाँ उसके पिता की प्रतिभा उपेक्षित हुई उसे वह मातृभूमि नहीं मानेगा।
आज उसे अपनी मिट्टी का अन्न मिला है, कल को वह उसे याद नहीं रहेगा,
उसकी भावनाएँ यह समझने में असमर्थ हैं कि देश से दूर मिट्टी में वह स्वाद नहीं रहेगा।
कोई अचरज नहीं उसे 'माँ' का अर्थ 'मम्मी' बताया जाएगा,
'माँ' सा पवित्र और अपना शब्द उसे नहीं भाएगा।
और अपनी जड़ों से दूर वह गुलाब 'चाइनारोज' बन जाएगा,
रंग-रूप पा जाएगा, पर भारतीयता की सुगंध नहीं ला पाएगा।
एक पत्ती की कद्र न होने से एक गुलाब देश से दूर हो जाएगा,
यह किसी एक की कहानी नहीं, ऐसा रहा तो कोई नहीं बच पाएगा।
और एक दिन हर एक भारतीय इंगलिश या अमरीकन कहलाएगा।

Monday, September 23, 1996

अंतरिक्ष में मानव

इस विषय पर सोचते हुए अचानक याद आया,
कभी किसी कवि ने क्या खूब था गाया।

उन्होंने कामना की थी,
'चढ़ जाएँ धरा से सूर्य किरण पर राग-रथी'

और आज का मानव करने जा रहा है वह आकांक्षा पूरी,
किरणों को तो पा चुका, सूर्य से भी नहीं है ज़्यादा दूरी।
कौन मानेगा, यह मानव कभी था इस धरती से अंजान,
अब तो अंतरिक्ष भी बन गया उसके लिए पिकनिक का स्थान।

अपनी हर दिन बढ़ती प्रगति से वह खुश हो रहा है,
बेख़बर कि इन कलापों से कोई रुष्ट हो रहा है,
वह जिसने बनाई सृष्टि,
जी हाँ! वह है हमारी प्रकृति।

अरे ओ अंतरिक्ष में जाते मानव!
सूर्य की ओर क़दम बढ़ाते मानव!
भूलना नहीं सूर्य-ताप से तू नष्ट भी हो सकता है,
अंतरिक्ष की ख़ातिर धरती को भूलने का तुझे कष्ट भी हो सकता है।
अंतरिक्ष का खिलाड़ी बनने वालों! तुम शायद चैन से जियोगे-मरोगे,
पर भावी पीढ़ी की भी सोचो, उसे तुम क्या दे सकोगे?

वायु-जलहीन अंतरिक्ष में घर?
घुटता-सा जीवन कष्टों में घिरकर?

आज अंतरिक्ष तुम्हें खिलौना भले लगे, पर कल ये तुम्हें खिलवा सकता है,
भूलो मत! प्रकृति का अंग है, छेड़ोगे तो दंड दिलवा सकता है।
मैं यह नहीं कहती कि अपनी प्रगति रोको,
पर अंतरिक्ष के पहले धरती के भूखों को देखो।

क्या दोगे तुम उन्हें अंतरिक्ष अभियानों से?
पृथ्वी पर घर-विहीनों को अंतरिक्ष के मकानों?

जिस दिन तुममें ताकत आ जाए, नई ओजोन बना सको,
उस दिन अंतरिक्ष का रुख करना, भयमुक्त हो इसे मिटा सको।

जिस दिन यह निश्चित कर लो, मानव अंतरिक्ष को बाँटेगा नहीं,
वहाँ जाकर पृथ्वी के समान अपनों को काटेगा नहीं,
उस दिन वहाँ जाना और गर्व से पुकारना, "देवता और दानव!
मानव का नहीं कुछ बिगाड़ सकते तुम क्योंकि अब है अंतरिक्ष में मानव।"

Saturday, September 21, 1996

कहाँ गया देवत्व हमारा

पापों में डूबी धरती को फिर ज़रूरत है वाराह अवतार की,
मानवता के शत्रुओं के लिए ज़रूरत है तांडव-युक्त हुंकार की,
फिर धरती चाहती है अपनी संतानों के लिए महासंबोधि,
फिर आज ज़रूरत है इस ज्ञान से मानव धर्म प्रसार की।

ज़रूरत है एक बुद्ध की जो मानवता का घूँट पिला सके,
और बलशाली राम चाहिए, सैकड़ों रावणों को हिला सके,
शासक-शासित को कर्तव्यों के बोध के लिए
चाहिए एक और चाणक्य जो जीवन राह बता सके।

चाहिए कृष्ण एक और ताकि पांडव विजयश्री पा सकें,
और चाहिए एक विश्वामित्र धरती पर स्वर्ग बना सके,
कोमलता को कायरता में परिणत करने वालों को
बनना होगा दुर्वासा, क्रोध की चिंगारी को आग बना सके।

चाहिए हमें एक और भरत, सिंह के दाँत गिना सके,
और चाहिए एक मौर्य जो सेल्यूकस को हरा सके,
सारे विश्व में घूम-घूम, लेकर ज्ञान मशाल
विवेकानंद चाहिए विश्व-विजयी कहला सके।

थे सब भारतवर्ष की थाती और अलौकिक गुण था पाया,
देवताओं का अंश है हममें यह सिद्ध कर के था दिखलाया,
कहाँ गया देवत्व हमारा? दानवों ने लेकर सहारा,
हमारी दानवी प्रकृति का, हमें अपनी राह से भटकाया।

हो चुके हैं इस धरती पर अत्याचारी नंद अनेकों,
पर हमने तो उन सबका सामना कर के दिखलाया,
कहाँ आज का है चन्द्रगुप्त, भारतीयों खोजो-देखो,
एक समय में इसी भूल से हमने अपना देश गँवाया।

नहीं मिलेगा कोई तुम्हें यहाँ अलौकिक शक्ति वाला,
बनना होगा तुमको ही मानवता का रखवाला।
कोई फ़ायदा है नहीं, डूब चुका है देश गर्त में
कहकर हमने अपनी इस ज़रूरत को खुद ही टाला।

क्यों नहीं बन सकते हैं हम राम, कृष्ण या बुद्ध महान्?
मानव के लिए कुछ भी नहीं असंभव, फिर क्या हैं हम इतने अज्ञान?

Thursday, September 19, 1996

सभ्यता का चरमोत्कर्ष

मंद-मंद हलकी-हलकी बहती हवा
ने कानों में आकर मुझसे कहा,
"चल मैं ले चलूँ तुझको,
तू जाना चाहती है जहाँ।"

मैंने कहा,"ऐ हवा!
तू तो घूमती यहाँ-वहाँ,
बता कोई ऐसी जगह,
शांति पा सकूँ मैं जहाँ।"

गम्भीर होकर उसने कहा,
"प्रगति की अंधी दौड़ है जहाँ,
भला उस भावना-शून्य दुनिया में,
शांति मिलेगी तुझे कहाँ?"

हताश होती हुई मैं बोली,
"क्या तुझे ऐसी जगह न मिली?
भले वह इस पृथ्वी से बाहर हो,
पर खिलती हो जहाँ शांति की कली।"

जवाब मिला, "ऐ नादान!
क्या सचमुच तू है अनजान?
चाँद पर भी मानव का कब्ज़ा है अब,
छोटा-सा मसला है अब यह जहान।"

"निकट भविष्य में चाँद में
तरलाई न होगी, न मन में
आएगी शांति की बात।
कोई मज़ा ना होगा जीवन में।"

"तब सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर पहुँच
होगी तू भी दासी विज्ञान की
रक्षा के कवचों में घिरकर भूल जाएगी,
बात तू भी प्रकृति के गुनगान की।"

Tuesday, September 17, 1996

काग़ज़ की जीवन कहानी

बाँस की पेड़ जिसमें, छिपा है भविष्य के काग़ज़ का टुकड़ा,
दिखते हैं कुछ मज़दूर और नज़र आता है एक मालिक-सा मुखड़ा।
फिर दनादन चलती है कुल्ड़ियाँ,
कुचली चली जाती हैं पास की झाड़ियाँ।
फिर वे बाँस ले लेते हैं लुग्दी का रूप,
हरे-हरे से प्यारे बाँस लगने लगते हैं ब़ड़े कुरूप।
फिर बन जाता है वो काग़ज़,
लेकर थोड़ा-सा श्रम, थोड़ी-सी लागत।
फिर वह एक मोटी-सी कॉपी का भाग बन जाता है,
एक बड़ी ऑर्केस्ट्रा का छोटा-सा साज बन जाता है।

फिर दुकान के एक कोने में उसपर धूल जम रही थी,
यदि उसमें प्राण मानें तो उसकी साँस घुट रही थी।

फिर एक दिन एक विद्यार्थी ने उसकी उपयोग किया,
कुछ लिखकर, कुछ काटकर, कुछ करने में प्रयोग किया।

फिर एक दिन रह गया वह एक रद्दी काग़ज़,
कूड़ेदान में होने भर की रह गई उसकी हैसियत।

पर क़िस्मत से उसे एक दुकानदार ने ले लिया,
एक बच्चे के खरीदने पर कुछ बिस्किट उसमें दे दिया।

बच्चे से छूटने पर कर्मचारी के झाड़ू का हो शिकार,
चल दिया म्यूनिसिपल्टी की गाड़ी में होकर सवार।

कहीं किसी गढ्ढे में सड़कर खाद बन गया,
जिसे किसी माली ने अपने बाँस के पेड़ में डाल दिया,
और फिर खत्म हो गई उसकी जीवन कहानी,
बाँस के उस पेड़ के रूप में रह गई उसकी निशानी।

उसे किसी माली ने पोसा,
उसे किसी फैक्ट्री ने खोजा,
किसी विद्यार्थी ने उसे पूजा।
जाने किसी नादान को क्या सूझा?
उसे बना डाला कूड़ा,
हो गया उसकी जीवन पूरा।

किस्मत ने जीवन के कितने रंग दिखाए,
सहता गया वह काग़ज़ चुपचाप,
जिसने उसे जीवन झेलने की
शक्ति दे दी अपने आप।

Friday, September 13, 1996

अतीत, हक़ीकत और स्वप्न

एक हक़ीकत क्षण में अतीत हो जाएगी,
उसे वापस लाने की बात आशातीत हो जाएगी,
एक सपना क्षण भर में शायद सच हो जाएगा,
'कभी वह सपना था' - यह भाव कहीं नहीं बच पाएगा।

और फिर एक दिन ऐसा आएगा,
जब स्वप्न और अतीत की भूल-
भुलैया में, मानव विलीन हो जाएगा,
इन सबका अंत हो जाएगा।

फिर नए सपने होंगे, फिर नई हक़ीकत,
विधाता रचेगा फिर से, कुछ नई-नई सी क़िस्मत,
उनके नए सपने मानव को अतीत की ओर झुकाएँगे,
और वे हक़ीकत के लिए अतीत को खोज लाएँगे।

फिर जोड़े जाएँगे वे घड़े,
जिन्हें तोड़ा था किसी बड़े,
आदमी के निर्मम हाथों ने,
नहीं जुड़ने दिया गरीबी के आघातों ने,

फिर सूतों और रेशम के अवशेषों से
पता लगेगा सामाजिक विषमता का।
और अतीत के विकृत समाज की दुहाई देकर,
वो नारा लगाएँगे समता को।

फिर एक दिन अतीत खोजने वाले अतीत बन जाएँगे,
फिर कुछ नए सपनों के सौदागर,
बनाएँगे सपनें के सुंदर घर।
और अपने अतीत को ढूँढ़ लाएँगे।

स्वप्न और अतीत की यह कहानी युगों-युगों तक चलती रहेगी
कहानी हक़ीकत की बनती रहेगी, बिगड़ती रहेगी,
अतीत और स्वप्न आते-जाते रहेंगे,
स्वप्न-द्रष्टा अतीत बन जाते रहेंगे।
लोग आते रहेंगे, लोग जाते रहेंगे।

Monday, September 02, 1996

तुम इंसान हो

क्यों मानते हो अपना देश एक छोटी सी धरती,
क्यों नहीं चाहते वह भूमि जो कोटि-कोटि के दामन भरती,
क्या मिलेगा तुम्हें इस स्वर्ग को उजाड़कर,
जगत्-गुरु होने का गौरव नकार कर?
कब मिल सकेगा तुम्हें उन शहीदों-सा मान,
जिन्होंने तुमसे ही उलझते हुए दे दिए अपने प्राण?
वे शायद आभारी हैं तुम्हारे कि तुमने उन्हें मान दिया,
पर, आख़िर क्या चाहते हो जो हर बहन को रुलाने का काम है ठान लिया?
ज़रा सोचो उस बेचारी बहन की कथा,
जो राखी के दिन मना रही है भाई के मौत की व्यथा।
ज़रा सोचो उस स्त्री का करुण कहानी,
जिसे एक वर्ष में हटानी पड़ी है सुहाग की निशानी,
जो ससुराल के लिहाज से रो भी नहीं पा रही,
उसकी आह महसूस करो जो तिल-तिल कर है कराह रही।
सोचो उस माँ के बारे में जिसके आगे बच्चे की लाश पड़ी है,
अविश्वस्त-सी जिसकी आखें उस लाश पर ही गड़ी हैं।
उस पिता के हृदय की सोचो, जिसके पास बेटे की चिता सजी है,
कितना बदनसीब है वह कि उसके रहते बेटे को आग पड़ी है।
कौन है इस स्थिति का आधार?
कौन है इसका ज़िम्मेवार?
कभी तरस, तो कभी हँसी आती है तुम्हारे विचार पर,
कौन-सा गौरव चाहते हो इस गौरवमयी धरती को त्याग कर?

ऐ इन्सान, कहाँ खो गई तेरी इन्सानियत?
आदमी! किस ताक पर रख छोड़ी तूने आदमीयत?

क्यों मिटाना चाहते हो यहाँ से मोहब्बत का निशाँ,
कभी प्रेम से बोलो तो देखो कैसा बँधता है शमाँ।

इस धरती को स्वीकारो,
यों भाइयों को मत मारो,
देखो तो कितना कुछ है यहाँ तुम्हारे लिए,
'मेरा' छोड़ कहना सीखों 'हमारे' लिए।
फेंक दो यह घिनौना मवाद,
जिसे कहते हैं हम आतंकवाद,
इसके कारण अब ना किसी की माँग का सिन्दूर मिटे,
ना ही अब किसी बहन के हाथ से राखी छूटे।

लेकिन मेरी कलम कल्पना-लोक में जा रही है,
क्योंकि तुम्हारी आत्मा मेरी पुकार नहीं पा रही है,
या तुम एक सच्चाई से मुँह मोड़ना चाहते हो,
बेवज़ह अपना अद्भुत घर ख़ुद ही तोड़ना चाहते हो?
अपनों की आवाज़ की अवहेलना तो पशु भी नहीं करता,
तो क्या तुम्हें इन्सान की पुकार में अपनापन नहीं मिलता?

सोचो कि तब तुम एक पशु भी नहीं रह गए,
क्योंकि तुम्हारे जीवन-मूल्य नफ़रत की धारा में बह गए।
क्या कंधे पर बंदूकों के साथ तुम्हें अपना अस्तित्व नज़र आता है?
क्या अपने चेहरे पर इंसानी व्यक्तित्व नज़र आता है?

यदि हाँ, तो तुम्हारे दिल का आईना झूठा है,
क्योंकि हर सही इंसान विश्व का तुमसे रूठा है।

अब तुम ही सोचो नफ़रत ने तुम्हें क्या बना दिया है?
कि तुम इंसान हो, यह तक तुमने भुला दिया है।

Monday, August 26, 1996

ज़िन्दग़ी

ज़िन्दग़ी
एक सुहाना सफ़र,
या तनावों का घर?

ज़िन्दग़ी
एक ख़ुशनुमा स्वप्न,
या एक ख़वाब जिसमें भरा हो ग़म?

ज़िन्दगी
प्यार का गीत,
या दुखों का मीत?

ज़िन्दग़ी
एक लाभदायक समझौता,
या सपनों का टूटा घरौंदा?

ज़िन्दग़ी
पूरी होती चाह,
या एक कठिन राह?

ज़िन्दग़ी
त्याग और बलिदान,
या ज़रूरत से ज़्यादा खिंची कमान?

ज़िन्दग़ी
खुशियों का पैग़ाम,
या ग़मों की दास्तान?

ज़िन्दग़ी
क्या?
आख़िर क्या?

Sunday, August 18, 1996

राष्ट्र प्रेम - मानव प्रेम

खाकी वर्दी पहन कर गांधी टोपी चढ़ा लेना,
राष्ट्रगान गाते हुए तिरंगा फहरा लेना,
क्या यही राष्ट्र-प्रेम है?

'नारी मुक्ति' पर भाषण देकर घर में बेटियों को दबा देना,
आर्थिक सुधारों के दस्तावेज़ों के पीछे घोटालों की पंक्ति लगा देना,
क्या यही राष्ट्र-प्रेम है?

झोपड़पट्टियाँ गिरवा कर फैक्ट्रियाँ बनवा देना,
स्वतंत्रता दिवस पर अतीत का गुनगान गा देना,
क्या यही राष्ट्र-प्रेम है?

विदेशियों के आगमन पर तोपें छुड़वा देना,
और गांधी जयंती पर 'मेरा भारत महान्' बुलवा देना,
क्या यही राष्ट्र-प्रेम है?

मानवाधिकारों पर बल देते हुए बच्चों से श्रम करवा लेना,
निरीहों का उत्थान करते हुए उनके वोट गिरवा देना,
क्या यही मानव-प्रेम है?

शांतिदूत बनते हुए दो भाइयों के लड़वा देना,
'सेकुलरों' द्वारा अस्सी प्रतिशत आरक्षण करवा देना,
क्या यही मानव-प्रेम है?

बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र का निरीक्षण कर अपना मन बहला लेना,
सूखा-ग्रस्त क्षेत्र की सहायता राशि खुद ही पचा लेना,
क्या यही मानव-प्रेम है?

सौंदर्यीकरण के नाम पर लाखों की रोटी छुड़वा देना,
और घंटे भर बाद खुद को गरीबों का मसीहा कहा देना,
क्या यही मानव-प्रेम है?

या कि हर मानव की सेवा में खो जाना
उस कदर कि उसमें खुद को ही बिसरा जाना
सिद्धांतों से हटकर इस राष्ट्र को यथार्थ पर लाना
अंधविश्वासों की चादर हटा कर सोई जनता को जगाना
दूसरों के कष्टों के प्रति भावुक हो जाना,
न कि अपनी भावनाओं को दूसरों पर थोप जाना
इस राष्ट्र को संकटों को सचमुच में अनुभव कर पाना
न कि लोकनिंदा के भय से नाटकीय आह भरकर रह जाना
यही राष्ट्र-प्रेम है?
हाँ,
यही राष्ट्र-प्रेम है,
यही मानव-प्रेम है,
यही धर्म-प्रेम है,
यही कर्म-प्रेम है,
यही सही ज़िन्दग़ी है,
यही सही बन्दग़ी है,
इन्सान के लिए यही सही मोहब्बत है,
जिससे ज़िन्दग़ी रहते मिल जाती जन्नत है।

Saturday, July 27, 1996

नारी मुक्ति

नारी मुक्ति का एक सुनहरा स्वप्न,
उसकी आशा भरी आँखों में था बंद।
दुनिया की नज़रों में वे आँखें खुली थीं,
पर, वह नारी थी, जिसे आँखें बंद करने के लिए ही मिली थीं,
फिर भी मुक्ति के बल पर,
परंपराओं से लड़ किसी तरह अधखुली थीं।

वह दो नावों की अकेली नाविक और सवार,
आख़िर कब तक ना माने ज़िन्दग़ी से हार?
सोचती कि काश! नारी मुक्ति का स्वप्न न पाला होता,
कम-से-कम कोई दया तो करने वाला होता।

पर अब तो न सहयोग है, न दया की भीख,
हर देने वाला दे कर चला जाता है कोई सीख।
उससे घर को आराम चाहिए,
उससे बाहर को काम चाहिए,
काम, काम, काम है उसकी दिनचर्या
चाहे दफ़्तर की कुर्सी हो या हो घर की शय्या।

लड़के वाले देखने आए,
रूप गुण तो खूब भाए।
लड़की नौकरी-पेशा है, ये तो हमें चाहिए,
पर एक और सवाल का भी तो जवाब लाईए,
"लड़की को और क्या-क्या सिखलाया?"
जी हुआ पलट के पूछे, "लड़के को है क्या बतलाया?"
पर क्या आपका दिमाग़ हुआ है ख़राब?
आप लड़की हैं, भूलें मत, वह लड़का है जनाब।

और फिर पत्नी, बहू, माँ और नागरिक बन,
हर जगह उत्तरदायित्वो का कर वहन,
छोड़ गई इस समाज के लिए एक प्रश्न-
क्या नारी मुक्ति नहीं एक और बहाना करने का दोहरा शोषण?

Monday, June 24, 1996

कल्पनाएँ

निरुत्तर रहना पड़ता है इस प्रश्न पर कि कल्पनाओं में क्यों हो जीती,
अब क्या बताऊँ कि यथार्थ नहीं जो दे पाता, वह कल्पनाएँ ही तो हैं देती।
माना कि कोरी कल्पनाओँ से चलता नहीं जीवन है,
पर कम-से-कम सुखी जीवन का तो मिलता एक आश्वासन है।
कल्पनाएँ और कुछ नहीं तो एक सुखद अहसास होती हैं,
जब दिल टूट जाते हैं तो उनकी एकमात्र बची आस होती है।
कल्पनाओं में सचमुच बड़ा ही बल है,
ये दुखियों को भी देतीं जीने का संबल है।
कल्पनाएँ यथार्थ की भी पूरक हैं,
जब यथार्थ से जी घबराए तो बचने की एकमात्र सूरत हैं।
यथार्थ का सामना करने हेतु ऊर्जा-स्रोत कल्पना है,
ये अहसास कराती हैं कि जीवन में कुछ तो अपना है,
क्योंकि यथार्थ तो अपना हो नहीं सकता,
तो कम-से-कम कल्पनाएँ कोई खो नहीं सकता।

तो कल्पना में हम डूब नहीं सकते, पर कल्पना करना नहीं बुरा है,
यथार्थ से उसे अलग नहीं कर सकते, दोनों में एक संबंध जुड़ा है,
आज के यथार्थ में कोई भी पागल हो जाए,
यदि वह जीवन में कभी कल्पनाओं का सहारा न पाए।

Saturday, June 15, 1996

समाज का पोस्टमार्टम

मैं एक डाक्टर के वेश में,
जुटी हुई थी एक गंभीर केस में,
एक रोगी समाज नाम था जिसका,
जाने उसे रोगी बनाने का काम था किसका?
एक साथ कई बीमारियों से ग्रस्त था,
अपनी दयनीय हालत से वह त्रस्त था,
पर यह क्या! वह तो मर चुका था,
यमदूत मुझसे पहले ही अपना काम कर चुका था,
पोस्टमार्टम से पता चला, कई बीमारियाँ थीं उसे,
वह 'लावारिस' लाश सौंपती भला मैं किसे?
उसकी त्वचा का रोग था भ्रष्टाचार,
दिमाग़ ख़ुद से निकाल चुका था शिष्टाचार,
हिंसा, स्वार्थ और दूसरों के खून से भर,
फट चुका था उसका ब्रेन-ट्यूमर।
दानव का रक्त भरने से उसे हो गया था ब्लड कैंसर,
परोपकार रूपी हृदय के खत्म होने से वह गया था मर।
उसकी ज़बान में भी था रोग,
जो त्याग छोड़ चाहती थी सिर्फ़ भोग।
पैर नहीं टिक सकते थे ज़मीन पर,
उन्हें बीमारी थी चलने की खून पर।
हाथों की बीमारी, वे काम न कर सकते थे
बस काम तमाम कर सकते थे।
उसकी सिरदर्द थी संस्कृति,
पेट में दर्द का कारण थी प्रकृति।
अनास्था का अपेंडिक्स उसे शूल सा चुभता था,
अपनी दशा से वह मन-ही-मन कुढ़ता था,
फिर भी बीमारियों के पथ से नहीं मुड़ता था,
बंदूकों पर हो सवार क्षय रोग की उड़ान भरता था।
ऊपर-ऊपर मीठी बोलने से उसे हुई थी शुगर की बीमारी,
उसकी कुटिलता रूपी बीमारी के आगे ईश्वर की शक्ति भी हारी,
ब्रेन कैंसर ने भी उसका पीछा न छोड़ा था,
आख़िर ख़ुद उसने ही तो ख़ुद को उस ओर मोड़ा था।

इस दास्तान को सिर्फ कविता समझ कर भूल न जाना,
ख़ुद को ऐसी राह पर कहीं से भटक-भूल न लाना,
वर्ना तुम्हारे पोषक समाज का हश्र यही होगा,
उस पेड़ की शाख होने का कष्ट तुम्हें भी होगा।

Thursday, June 13, 1996

आदमी की तलाश

यहाँ हर किसी को किसी की तलाश है,
हर किसी को किसी की लगी एक प्यास है,
एक 'विवेकशील' प्राणि,
नाम जिसका है आदमी,
उसे आखिर किसकी तलाश है?
वह किसके लिए लगाए एक आस है?
किसके लिए वह ऐसे पथ पर बढ़ रहा है,
जहाँ मानव, मानव से ही मर रहा है,
जहाँ उसे मालूम ही नहीं वह कैसे कर्म कर रहा है,
और बिन मंज़िल के ही रास्ते पर बढ़ता चल रहा है।
यह उस पर सवार कैसा जुनून है,
जो से लेने नहीं देता सुकून है?
क्या मिल रहा है या मिलेगा उसे यह सब कर के?
अच्छा हो यदि वह इसका भी जवाब सोच ले।
वह दुनिया जहाँ न प्यार हो न जज़्बा,
न हो समाज, न गाँव, शहर, न कस्बा,
बस बंदूक ले कर मारने पर उतारू मानवों का ढाँचा,
सच्चे मानव बनाने वाला टूट चुका होगा साँचा।
वहाँ न बहन की प्यारी झिड़की होगी, न माँ का ममता,
बंदूक की सम्पत्ति रखने वाले मानवों के बीच होगी अर्थ की समता।
वहाँ न होगी बच्चों की शरारत,
न ही जीवन निर्वाह की कोई हरारत।
हर किसी के हाथों कोई जीवन नष्ट हो रहा होगा,
और सत्कर्म बेबस पड़ा, इस सृष्टि से रुष्ट हो रहा होगा।
वहाँ छात्र बंदूक संस्कृति को सही मानेंगे,
'स्व' की परिधि से निकलने की कला को नहीं जानेंगे।
वह मानव, मानव नहीं, पृथ्वी पर दाग होगा,
नर के वेश में पृथ्वी पर विचरता बाघ होगा।

Monday, June 03, 1996

शिष्टाचार महान् है

शिष्टाचार,
सभ्य जीवन की आधार,
भला क्या है उसमें?
उसका सही रूप पाते हैं किसमें?
जिसके पास सबसे बड़ा झूठ-फ़रेब है,
वह ऐसा है जैसा अन्दर से सड़ा, ऊपर से लाल सेब है।
..................................... क्यों?
इसका भी जवाब लो।

एक व्यक्ति निरभिमानी,
जी हाँ, शिष्टाचार का धनी।
कोई पढ़ सके तो पढ़ ले उसका मन,
क्या सचमुच उसमें नही अभिमान?
है, मगर फिर भी वह शिष्ट है,
और यह समाज उससे नहीं रुष्ट है,
जो दिल की बात छिपा झूठ में खुद को तुच्छ कहता है,
और यह समाज दिल खोलकर रखने वालों से रुष्ट रहता है।

एक व्यक्ति निःस्वार्थी,
शिष्ट और परमार्थी।
क्या है उसमें परमार्थ सही?
क्या सचमुच उसमें स्वार्थ नहीं?
निःस्वार्थी बनने पर समाज में मिलती इज्जत का भी नहीं?
उस लोक में जाने पर ईश्वर की मोहब्बत का भी नहीं?
बेशक़ यह भी है ख़ुदगर्ज़ी,
पर समाज के लिए ये है इन्सानियत की मर्ज़ी।

लेकिन........................................ फिर भी

यह शिष्ट आचार है,
सभ्य जीवन की आधार है,
बग़ैर इसके जीवन निराधार है,
एक हद तक सत्य का बलिदान है,
फिर भी मानते आए हैं, और ज़बर्दस्ती भी मानना पड़ेगा,
शिष्टाचार महान् है।

Wednesday, May 15, 1996

एक भयावह सपना

मैं थी एक कमरे में बंद
मेरे सामने न था कोई रंग,
न ही था कोई मेरे संग।

मैं न सूर्य को देखती थी न तारों को,
क्योंकि शायद भुला भी चुकी थी "असभ्यता" की मजारों को,
मैं तो उनके नाम भी न जानती थी,
उस कमरे को ही सारी दुनिया मानती थी।

"खट-खट" - दरवाज़े पर शायद आया कोई चोर,
पर सुरीली आवाज आई, "नहीं, मैं हूँ एक मोर।"
तुम नहीं जानती? प्रकृति का दूत।
सच चौंक गई मैं, कौन है यह भूत?

डरते-डरते दरवाजा खोला,
उस खूबसूरती को देख कर मेरा मन डोला।
पर कुछ समझ नहीं आया,
तब उसने मुझे खुला पंख दिखाया।

अब मैं उन पंखों पर हो सवार, शायद अतीत में उड़ी जा रही थी,
और खुद को कुछ अजीब हरे-भूरे प्राणियों के बीच पा रही थी।
और थे कुछ चलते उड़ते प्राणि,
बिना कवच के ही फिरते प्राणि।

आश्चर्य में मैंने पूछा,
"भाई! बताओ तो ये है क्या?"
उसका जवाब था, "प्रकृति"
ये थी भला कैसी अजीब सृष्टि।

अचानक मुझे एक झटका लगा,
किसी की चुहल का खटका लगा।
ओह! तो यो एक भयावह सपना था,
पर हमारे कितना करीब, कितना अपना था।
हमारा भविष्य ऐसा ही घुटता हुआ,
खुद से और सिर्फ खुद से लिपटा हुआ।

तभी तो मैंने भविष्य में भी खुद को देखा,
जबकि मेरे ख़्याल में कदापि संभव नहीं ऐसा
कि मैं उस भविष्य में रहूँ,
और उन परिस्थितियों को सहूँ।

पर भावी पीढ़ी को ही सही! यह भविष्य देगा कौन?
हम ही तो, इस सवाल पर आप सब क्यों हैं मौन।

Tuesday, April 30, 1996

मानव सभ्य हो चुका है

मानव गुफाओं में रहता था, बिना भेदभाव के,
छल-प्रपंच से दूर, हृदय पर बिना बने किसी घाव के,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव प्रकृति से डरता था,
इसी के लिए जीता-मरता था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव कुछ पाने हेतु मेहनत करता था,
खुशियों में हँसता, दु:ख में आहें भरता था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव के पास कुछ सोचने को, देखने को समय था
संतोष उसका श्रृंगार, हथियार उसका विनय था,
     क्योंकि वह मानव असभ्य था,
     सभ्य जीवन उसके लिए अलभ्य था।

मानव ने सबसे बड़ी क्रांति मचाई थी,
अपने लिए, दुनिया के लिए आग पाई थी,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने समाज को वर्गों में बाँट दिया था,
कुछ मे पशु, कुछ मे सुर-तुल्य स्थान प्राप्त किया था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने अपने को क्षेत्रों में समेट लिया,
सुरक्षा के लिए भाषा का कवच लपेट लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने युद्ध की कला को जान लिया था,
तभी तो खुद को सर्वशक्तिमान मान लिया था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

उसने बिजली के कड़कने और बादल के गरजने का रहस्य समझ लिया,
तभी तो वह ईश्वर को चुनौती देने में उलझ गया।
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव अब लिखना, पढ़ना, बोलना जान चुका था,
उनका प्रयोग कर चोट करना अपना कर्तव्य मान चुका था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने पहिए को खोज जीवन-बारिश का महेन्द्र मान लिया,
उसकी-सी ही यांत्रिकता को सफल जीवन का केन्द्र मान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव वायुयान का कर आविष्कार, कल्पनानुसार, पंखों से युक्त हो चुका था,
अपनी जननी, अपनी माटी, अपनी ही धरती से मुक्त हो चुका था,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने उपनिवेशों को विकास का प्रतीक मान लिया,
शोषण की अधिकाधिक क्षमता को बल का परिचय सटीक जान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने लहु के बहने को क्रांति की शुरुआत मान लिया,
सत्य, अहिंसा और विनय को बल पर आघात मान लिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने खुद को धर्मों की किस्मों में बाँट लिया,
विकास के मान पर अपने ही भाइयों को काट दिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने प्रकृति को अपना दुश्मन करार दिया,
उससे छीन कर विज्ञान को हर एक अधिकार दिया,
     क्योंकि मानव सभ्य हो रहा था,
     और विकास के बीज बो रहा था।

मानव ने मानव मूल्यों को भुला दिया है,
कृत्रिमता के जोश में भावनाओं को सुला दिया है,
     क्योंकि मानव सभ्य हो चुका है।
     मानव सभ्य हो चुका है।

Friday, April 26, 1996

मेरा भारत महान् है

वह थी एक बूढ़ी असहाय सी औरत,
परिस्थितियों की मार से हो चुकी बेबस,
वह एक छोटे से क्षेत्र में घंटों से बैठी थी,
उसकी किस्मत हर तरह से उससे रूठी थी।
दो-ढाई किलो रद्दी से भरा थी उसका बोरा,
मोतियाबिंद उतरे आँखों में बंद सपने थे उसका घोड़ा,
उस पर चढ़ कर आशाओं के आकाश में सैर कर रही थी,
पर, तुरत, यथार्थ के धरातल पर उतर कर आह भर रही थी।
तब तक शायद उसे भूख लग आई थी,
किसी तरह टटोल कर बोरे से छोटी-सी थैली पाई थी,
अपने काँपते हाथों से उसे खाना निकालते देख मैं रह गई थी दंग,
उसके भोजन को निहार मेरी हृदय गति होने लगी थी मंद,
चाह कर भी मुँह नहीं फेरा क्योंकि बाजू में एक सहेली खड़ी थी,
नज़रों में उसकी दयालु होने के कारण मैंने एक नाटकीय आह भरी थी,
वह भी कम नहीं थी, उसे अपने पोस्टर की नायिका बना रही थी,
क्योंकि उस स्थान को भरने हेतु पात्र की खोज तब तक की जा रही थी।
और मेरे और आपके लिए ये व्यथापूर्ण गाथा,
जिसमें सिमटकर रह गई वह है बस ये छोटी-सी कविता।
क्या इस समस्या का यही समाधान है?
और हम चिल्लाते हैं मेरा भारत महान् है।

Tuesday, April 23, 1996

हमारी भावनाएँ

हमारी भावनाएँ
   बेकद्र-सी पड़ी हुई हैं,
   दुनिया अपनी जिद पर अड़ी हुई है।

हमारी भावनाएँ
   भला कौन उसे समझेगा,
   हमारे मन की गुत्थम-गुत्थी को कौन बूझेगा?

हमारी भावनाएँ
   क्या उनसे जुड़ा है सम्पत्ति का अधिकार,
   ऐसा निकृष्ट सोच से मन कर उठा हाहाकार।

हमारी भावनाएँ
   उन्हें कुंठित करने का काम किसने किया है,
   दब्बू व्यक्तित्व का ये बोझ लाद किसने दिया है?

हमारी भावनाएँ
   ये ही बना दी गई है कि अगले कुछ वर्षों में,
   पैसे, गहने, मेहनत के खर्चों में,
   सारे पुराने रिश्ते टूट जाएँगे,
   सुनहले सपने हमसे रूठ जाएँगे।

हमारी भावनाएँ
   ये सुन उनमें भर गया था हर्ष.
   मनाया गया था कुछ समय पहले बालिका-वर्ष.
   पर ये हर्ष अब विषाद हो चुका था,
   दु:ख, पतन अवनति की गाद हो चुका था,
   जिसमें हमारी भावनाएँ और हम फँस चुके हैं,
   क्योंकि समाज-निर्माता भेदहीन समाज रच चुके हैं।

Friday, April 19, 1996

शिकायत

इस दुनिया में सभी को सभी से शिकायत है,
शिकायतें करने की हमारी शायद बन गई आदत है,
मुझे आपसे, आपको मुझसे,
सच को झूठ से, झूठ को सच से,
शिक्षक को छात्र से, छात्र को शिक्षक से,
परीक्षक को परीक्षार्थी से, परीक्षार्थी को परीक्षक से,
आदमी को दुर्भाग्य से, दुर्भाग्य को सौभाग्य से,
पानी को आग से, उपभोक्ता को त्याज्य से,
बच्चों को बड़ों से, बड़ों को बच्चों से,
चोरों को अदालत से, नेताओं को सच्चों से,
मुलायम को लालू से, आडवाणी को राव से,
मानो खुशी को प्यार से, या दुख को घाव से,
सहेली को सहेली से, दोस्त को दोस्त से,
मानो पानी को जल से और मांस को गोश्त से,
पर दोस्तों,
जिसको शिकायत जिससे भी है,
उसका जीवन उससे ही है।
कैकेयी न होती, तो राम की महानता कहाँ,
दशरथ न होते, तो उनकी पितृभक्ति कहाँ,
लक्षमण न होते, तो भ्रातृ-प्रेम कहाँ,
और रावण न होता तो उनकी शक्ति कहाँ?

अपोज़िशन न हो, तो सरकार की महत्ता कहाँ?
जनता न हो तो उसकी सत्ता कहाँ?

अत:, छोड़ो शिकायतें हो लो साथ,
मिल जाओ सब, मिला लो हाथ,
पर यह हाथ दो-मुँहा न हो,
कुतर खाने वाला कोई चूहा न हो।

Monday, April 15, 1996

वो बस

वो बस,
   कितनों की आशाओं की पूरक थी,
   आशाएँ पूरी करने की एक मात्र सूरत थी।

वो बस,
   कितनी ही खुशियों का उल्लास थी,
   वो खुशियाँ बन चुकी एक लाश थीं।

वो बस,
   कितनी ही माओं की आस थी,
   बस पहुँचने की लगी एक प्यास थी।

वो बस,
   कितने ही सपनों का मंदिर थी,
   पर सपनों के खून की चीख सुनने में बधिर थी।

वो बस,
   कितनी ही दुल्हनों का स्वप्न थी,
   क्या पता उन्हें स्वप्नों की होने वाली मृत्यु की रस्म थी।

वो बस,
   कितने ही प्रतीक्षारत भाइयों का अरमान थी,
   जिनकी बहनें ले कर आने वाली राखियों का फरमान थीं।

वो बस,
   कितनी ही दादियों का पोते का मुँह देखने की इच्छा थी,
   इतना ही नहीं, वो बस हमें भी दे चुकी एक शिक्षा थी।

वो बस,
   कितनी ही अभिलषाओं की कब्र थी,
   शायद किसी के बच जाने की भी सब्र थी।

वो बस,
   दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी थी,
   क्योंकि आदमी के बोझ से त्रस्त हो चुकी थी।

वो बस,
   कल अपने विकृत रूप के साथ अखबार में आने वाली थी,
   परसों वो ख़बर पुरानी हो जाएगी, पर ज़रूर सोचूँगी दिल के किसी कोने में जगह खाली थी।

वो बस,
   अपने में समेटे थी कितने ही घरों की व्यथा,
   और उस व्यथा से अभिभूत हो मैंने लिखी है ये कविता।

Sunday, April 14, 1996

खुश कौन है?

दुनिया में खुश वही है,
    जो है जान कर भी अनजान,
    जो है समझ कर भी नादान,
    जो सदस्य होकर भी मेहमान।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसके लिए नहीं है कोई समाज, 
    जिसके पास रहता है एक साज, 
    जो बजाता है सिर्फ अपना राग।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसे किसी से नहीं है मतलब, 
    जिसके लिए कुछ नहीं ग़ौर तलब, 
    जिसके लिए "मैं" में सिमटा है सब।

दुनिया में खुश वही है, 
    जिसकी रहती हैं आँखें बंद, 
    जिसके लिए एक हैं दुनिया के रंग, 
    जिनसे कोई अलग नहीं, ना ही कोई संग।

दुनिया में खुश वही है, 
    जो शायद कुछ करता नहीं, 
    किसी के दुख में आहें भरता नहीं, 
    कभी खुशी में हँसता नहीं।

हाँ, दुनिया में खुश वही है,
जिसके लिए हर चीज सही है,
जिसे किसी से कुछ नहीं मतलब,
जिसके लिए कुछ भी नहीं ग़लत।

Wednesday, April 10, 1996

तुम क्यों मौन हो?

मानव! मैं तुम्हारे नज़दीक आना चाहती हूँ,
क्या तुम आने दोगे?
एक खुशी, एक आनंद पाना चाहती हूँ,
क्या तुम पाने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम मनुष्य हो?
जिसकी शीश हिमराज से ऊपर हो उसके तुल्य हो।

मानव! मैं तुम्हें जानना चाहती हूँ,
क्या तुम जानने दोगे?
तुममें शक्ति है यह मानना चाहती हूँ,
क्या तुम जानने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम सच्चे मनुष्य से शांत-धीर हो,
अहिंसा से जग को झुका सकने वाले वीर हो?

मानव! मैं तुमसे कुछ अच्छा सीखना चाहती हूँ,
क्या तुम सीखने दोगे?
तुम्हारे ज्ञान को अपने दिल-ओ-दिमाग पर लिखना चाहती हूँ,
क्या तुम लिखने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! क्या तुम्हारे पास सच्चे ज्ञान का दिया है,
नफ़रत की आग बुझाने वाले ज्ञान-जल को तुमने पिया है?

मानव! मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ,
क्या तुम पूछने दोगे?
सिर्फ इतना, और मैं कुछ ना चाहती हूँ,
क्या तुम पूछने दोगे?
"हाँ" कहने वाले! बताओ तुम कौन हो?
अब बोलो, बोलो तुम क्यों मौन हो?

Tuesday, April 02, 1996

आदमी क्या है?

आदमी क्या है?
एक पुतली चलती-फिरती,
या एक लहर उठती-गिरती,
या एक हाड़-माँस की मिट्टी का ढाँचा,
जिसमें बना हुआ है हृदय-रूपी एक खाँचा,
जिसमें सबके लिए भरी हुई है नफ़रत,
सैनिक नहीं भरी है मानव-बम बनने की हिम्मत।
इतनी हिम्मत है उसमें कि दे सकता है शहादत,
पर उसमें वतन नहीं, द्रोहियों के लिए है मरने की आदत?

नहीं, ये मानव हो नहीं सकता,
जो मानव के दुख में रो नहीं सकता,
मानव के अंतर का नहीं यह रूप है,
अंतर्मन सुंदर पर उसका बाह्य रूप कुरूप है।
यह रूप बनाने वाला कोई मानव नहीं दानव है,
उसके षड्यंत्र में फँस गया ये मानव है,
मनुष्य रूप में पृथ्वी पर आकर मानव को कर रहा बर्बाद,
हमारी बर्बादी का जश्न मनाकर वह हो रहा आबाद,
उसने मानव की मानवता को सुला दिया है,
मानवता को दानवता में घोल-मिला दिया है,
उस दानव को हम जानते हैं,
वह दानव है हम मानते हैं,
फिर क्यों उसके चंगुल से हम छूटना नहीं चाहते हैं,
मानते क्यों नहीं उसके और हमारे जुदा-जुदा रास्ते हैं?
अब वक़्त आ गया है उठने का,
अब नहीं समय है रुकने का,
आज मानव को मानव से मोहब्बत सिखलानी है,
आगे बढ़ने की सही राह उन्हें दिखलानी है।

Friday, March 29, 1996

मेरा वो परिवार महान् था

जाने कैसे जीवन बीतता जाता है और यादें धूमिल पड़ती जाती हैं,
पर, कभी मुश्किलों में सहारा खोजते वक्त वो यादें बहुत आती हैं।
आज जब मैं अकेली रहती हूँ,
तो अपने उस जीवन, उस परिवार को याद करती हूँ,
जहाँ शायद कोई मेरी सगा अपना न था,
पर उनका स्नेह, वो प्यार कोई सपना न था।

वे बेगाने इन अपनों से अच्छे थे,
खून का रिश्ता न हो, पर मन के रिश्ते सच्चे थे,
उन रिश्तों में एक मिठास थी,
उन रिश्तों की ज़रूरत भी कुछ खास थी।

वे रिश्ते हवा-पानी की तरह महत्वपूर्ण थे,
रिश्तों की डोर से बँधे लोग अलग थे, पर एक दूसरे से मिलकर पूर्ण थे,
वे रिश्ते गंगाजल की तरह पवित्र थे,
जिसमें सभी एक दूसरे के विश्वासी मित्र थे।

उन रिश्तों में एक अनोखा बंधन था,
प्यार-मोहब्बत, दिल-ओ-दिमाग़ का संगम था।

उन रिश्तों की नींव पर हमने सुंदर मंदिर बनाया था,
जिसके भक्तों ने खुद के अंदर सागर-सा दिल पाया था,
उस अथाह दिल के अंदर सबके लिए स्थान था,
सच मैं सोचती हूँ मेरा वो परिवार महान् था।

Tuesday, March 26, 1996

संगीत

संगीत को गीत, वाद्य और नृत्य का मिलन बताने वालों!
संगीत लय-ताल में बँधा सिर्फ शब्द-समूह नहीं है,
"मन के भाव प्रकट करना" उसकी परिभाषा सही है।
संगीत का उद्गम-स्थल है आत्मा,
वही संगीत है जो हृदय-विकारों का कर सके खात्मा।
संगीत नारी के श्रृंगार का प्रतीक नहीं है,
जो तुम देते हो परिभाषा सटीक नहीं है।

संगीत का लिखित इतिहास बनाने वालों!
संगीत में लिखने की कोई चीज़ नहीं है,
संगीत में छिपी किसी सम्राट् की हार-जीत नहीं है।
मुश्किल ही नहीं असंभव है जानना कब हुआ इसका जन्म
क्योंकि जिस भाषा में ढालते हो, उसकी उम्र है कहीं कम।
संगीत सिर्फ किसी विरही का मीत नहीं है,
जो तुम लिखते हो इतिहास सटीक नहीं है।

संगीत की परिभाषा खोजने वालों!
संगीत की परिभाषा कोई लिख नहीं सकता,
स्वरूप इसका कभी कहीं मिट नहीं सकता,
तुम्हारे इस छल प्रपंच के संसार से दूर है,
इसे मिटा नहीं सकते, सुगंधित भावना का फूल है।
मनुष्य की तीव्र बुद्धि से इसका नाता नहीं है,
भावना-शून्य व्यक्ति कभी गीत गाता नहीं है।

Sunday, March 24, 1996

मैं भी हूँ एक माँ

लोग मुझे दुत्कारते हैं कि वह माँ सौतेली है,
ममता-शून्य क्योंकि अपने बच्चे के कष्ट की पीड़ा नहीं झेली है,
कैसे समझाऊँ, इस दुनिया में माँ से दूर मैं भी रह चुकी अकेली हूँ,
कुछ दिन माँ की गोद में मैं भी पली-बढ़ी-खेली हूँ।
जानती हूँ, बच्चे के जीवन में ममता का ऊँचा स्थान है,
सफल बनाने में उसके जीवन को माँ का योगदान महान् है,
मैंने भी महसूस किया है इस खालीपन को,
याद है मैंने कैसे सँभाला था मैंने मन को,
तब से किसी के जीवन में यह खालीपन नहीं चाहती,
तभी से इच्छा थी किसी अनाथ को माँ का प्यार दे पाती,
कल पहली बार उसे पूरा करने का मौका मिला था,
किसी के दिल में मेरी ममता का फूल खिला था,
पर आज उसे मसल कर दुनिया ने फेंक दिया,
मेरी ममता के केन्द्र इसने मुझसे छीन लिया,
आज वह माँ कहकर मुझसे लिपटता नहीं,
मुझे देखकर वो भोली-सी मुस्कान हँसता नहीं,
क्योंकि आज वह महान् हो गया है,
दुनिया की नज़रों में विद्वान् हो गया है,
दुनिया ने बता दिया है उसे अपने-पराये का अन्तर,
मैं पर जानती हूँ कोरा काग़ज़ है उसका अभ्यन्तर,
उस पर लोगों ने सौतेली माँ काले अक्षरों में लिख दिया है,
माँ-बेटे का सम्बन्ध सिर्फ खून से है, ये उसने सीख लिया है।

क्या सोच है इस दुनिया की, वाह! वाह!
भूल जाती है ये कि आख़िर मैं भी हूँ एक माँ।

Monday, March 18, 1996

मेरी सहेली

यो प्रश्न आज तक मेरे लिए है एक पहेली
जिसे ढूँढ़ती हूँ मैं कौन है वह सच्ची सहेली?

मैं नहीं चाहती केवल एक सहेली,
जो हो एक जानी समझी पहेली,
मुझे चाहिए कोई मेरा अपना,
जो कि सच हो न हो केवल सपना,
जिसके पास मन का अच्छा रूप हो,
भले ही उसकी चमड़ी काली कुरूप हो,
जो मुझे समझ सके,
और मेरे साथ रो-हँस सके,
जो मुझे पहचान सके,
मेरे अंतर की आवाज़ को जान सके,
मुझे सिर्फ मेरे ही रूप में मान सके,
जिसपर मैं विश्वास कर सकूँ,
आगे बढ़ने के लिए जिससे सहायता की आस कर सकूँ,
जो मेरी मुश्किलों का हल बता सके,
और मेरी मेहनत का फल दिला सके,
क्या इस संसार में कोई ऐसा मनुष्य है,
जो मेरी कल्पना के मित्र तुल्य है?
हे ईश्वर क्या मैं उसे कभी पा सकूँगी?
और उसे पा जीवन में सफलता के फूल ला सकूँगी?

Saturday, March 16, 1996

भारतीय इतिहास और विद्यार्थी

भारतीयों को गर्व हैं कि उनका इतिहास बड़ा लम्बा है,
पर हमारे लिए तो यो एक ऐसा मोटा खम्भा है,
जिसे तोड़ने हमारे कर्तव्यों में गिना जाता है,
हमें रास नहीं आता है,
और यही खम्भा गौरव बनाकर हम पर थोपा जाता है।
बहुत दुःख झेले भारतीयों मे अँग्रेजों के वक़्त इसकी तो हमें है अनुभूति,
पर, हाय! कोई हमारे दुःख से भी तो रखे सहानुभूति।
आज उनके दुःख पर हम आहें तो भरते हैं,
पर उनके नाम याद करने में जो हम मरते हैं,
उसे हमारे इतिहासकार शायद समझा नहीं करते हैं।

उन्होंने दुत्कारा अमरीका को क्योंकि तीन सौ साल ही पुराना देश है,
पर यारों, वो जानते नहीं हमारा कुछ अलग सा ही केस है।

हाय! कितना अच्छा है वहाँ के विद्यार्थियों को,
तीन सौ सालों को ही रटते हैं,
पर भारत का इतिहास हज़ारों साल पुराना है,
इसका ज़ुर्माना हम ही तो भरते हैं।

Thursday, March 14, 1996

उपवास

वह था जन्माष्टमी का शुभ दिन,
कुछ धर्मात्मा बारह बजे के घंटे रहे था गिन,
कब जाकर उनकी भूख मिटे,
कब सर से यह भारी बोझ हटे।
उनमें से एक ने मुझे आवाज़ लगाई,
पास बिठा कर मुझको धर्म की बात बताई,
"साल में नहीं रख सकती थीं एक जन्माष्टमी का उपवास?"
मैंने इशारा किया उधर जिधर धर्मात्मा कर रहे थे बाप-बाप।
क्या जवाब दें यह सूझ उन्हें नहीं आई,
पर एक अनोखी बात मुझे याद आई।
हाल में एक समाचार आया है,
जिसने पत्थर तक का दिल दहलाया है,
एक भोली, बेक़सूर लड़की को निगल गई मौत की छाया है,
हफ़्ते में छह दिन उपवास रखने वाली माँ ने क्या सुंदर फल पाया है।
जाने क्यों यह उपवास ईश्वर को रास नहीं आया है,
इस सच्ची भक्ति का ईश्वर ने ये कठोर दंड सुनाया है।
जब सच्चाई की यह हालत है, तो ढोंग की तो है बात निराली,
दुरुस्तों का ठिकाना नहीं तो जान-बूझ कर किसने है बीमारी पाली?

Tuesday, February 27, 1996

पोस्टमार्टम

उनके लिए कुछ नहीं था उस फूल में सिवाय पुंकेसर, स्त्रीकेसर व कुछ कोशिकाओं के,
पर, मेरे लिए उनके अंदर छिपे थे भाव उन माताओं के,
जो अपने बच्चे से बिछड़ने पर बिलखती हैं, रोती हैं,
और उन्हीं की याद में "चैन की नींद" सोती हैं,
बड़े प्रेम से ढूँढ़ा थे मैंने उसे उस वन में,
और उस फूल के बड़े पेड़ की कल्पना सजाई थी अपने मन में,
उसे देखकर वो भी चिल्लाए, "अरे! मिल गया।"
मैं चकित थी कि आख़िर हुआ क्या।
हाथ से झपटा ऐसे कि फूल मुझे मिला टूटा हुआ,
उन्हें किन्तु दुःख न हुआ, मानो जीत गए हों कोई जुआ।
उसी फूल की ज़रूरत थी उन्हें रिसर्च करने को,
चीड़-फाड़ करने को और अपने सफ़ेद कागज़ भरने को।
अपनी इच्छा पूरी की और उसे चीड़-फाड़ दिया,
उस ख़ूबसूरत फूल का पोस्टमार्टम कर मुझे लौटा दिया।
उन्हें शायद मिल गया था, हाँ, मिल गया था, एक नया हथियार,
और बस इसलिए देखती रही मैं कर न सकी गुस्से का प्रहार।
लोग आते था और उन्हें बधाइयाँ दे कर चले जाते थे,
पर वे लोग, हाँ, विद्वान् लोग, मेरे मन की थाह नहीं ले पाते थे।
वो फूल मेरे सामने सुना रहा था अपनी व्यथा-कथा,
और उसे प्रकट कर मन हलका करने के लिए मैंने लिखी है यह कविता।

Monday, February 26, 1996

एकता

भारत में एकता नहीं थी तो हो गया वह गुलाम,
पर आज भी देखने को मिल रहा है हमें इसका एक परिणाम।

सन् सत्तावन का विद्रोह जो सबने साथ नहीं किया,
गड़बड़ भी की और एक बुरा परिणाम हमारे लिए छोड़ दिया।

यदि एकता होती तो एक ही नेता का नाम आज याद करने को मिलता,
कम-से-कम उस कारण से, इतिहास पर से हमारा विश्वास तो न हिलता।

काश!
सबने सुधार आंदोलन एक साथ किया होता,
जब उद्देश्य एक था तो एक साथ जिया होता,
मैं गलत तो नहीं कह रही न!
क्यों छोड़ गए हमारे लिए एक ओर आर्य समाज, तो ब्रह्म समाज
क्यों बसाया एक ओर रामकृष्ण मिशन, तो प्रार्थना समाज।

इसलिए हे देश के विद्यार्थियों!
इनकी गलतियों से शिक्षा लो,
आतंकवादी बनो या सुधारक,
रखना सदा मन एक,
ताकि आगे आने वाली पीढ़ी को,
उठाने न पड़ें वैसे कष्ट जो,
आज तुम उठा रहे हो,
और पूर्वजों के अवगुण गा रहे हो।

Friday, February 16, 1996

बचपन

उन्हें आती है मधुर याद बचपन की,
स्वतंत्र, उन्मुक्त, भोले-भाले, स्वच्छंद जीवन की,
पर हमारे बचपन की कहानियाँ,
बस हैं मोटी पुस्तकों की कुछ निशानियाँ।

आज के बचपन में शरारतों की फुर्सत नहीं है,
क्योंकि कभी भी बच्चों को किताबें देती रुख़्सत नहीं हैं,
नंबर पाने की लगी ऐसी होड़ है,
मानो विद्याध्यन नहीं कोई खूनी दौड़ है।

कैसे रह सकता है यह बचपन भोला-भाला,
जब उन्हें नज़र आए सिर्फ घोटाला,
यह बचपन खुशियों का पैग़ाम नहीं, तनावों की दास्तान बना हुआ है,
इस बोझ को उतारने से पहले ही यह डरा-सहमा हुआ है।

कैसे याद आ सकती हैं उन्हें नानी-दादी की कहानियाँ,
जब चारों ओर मिलें सिर्फ बमों-बन्दूकों की निशानियाँ,
पहले भी होती थीं और आज भी हैं कहानियाँ,
पर आज इनमें परोपकारियों की महानता नहीं है, अपराधों की हैं  निशानियाँ।

हमारा समाज हमें दे रहा है ये कैसा बचपन?
स्वतंत्र, स्वच्छंद नहीं, बल्कि एक डरा सहमा जीवन।

Sunday, January 28, 1996

डर

जब देखने को मिलते हैं, एक ही चेहरे के दो विपरीत पहलू
समझ में नहीं आता मैं उनको कैसे सह लूँ?
आखिर कैसे ये लोग एक साथ नदी के दो किनारों का पानी पीते हैं,
ये मेरी समझ से बाहर है कि कैसे ये दोहरी ज़िन्दग़ी जीते हैं।
सच, अब तो डर लगता है, इन सभ्य लोगों के समाज से,
बिना कुछ बोले, चुपके-चुपके पीछे से झपटते इस बाज से,
हर किसी के अंदर छिपे किसी अनजाने-अनबूझे राज़ से,
सबों द्वारा बजाए जाने वाले इस ख़ूबसूरत, रहस्यमय, क़ातिलाना साज से,
हर मित्र पर किए गए अविश्वास से,
हर शत्रु से लगाई गई आस से,
हर आशा के आगे लगे "काश!" से,
एक-दूसरे के खून की लगी इस प्यास से,
कागज़ के टुकड़ों के लिए, जान के बैरी भाइयों से,
इस "उन्नत" समाज में व्यक्ति के जीवन पथ की खाइयों से,
तथाकथित सत्यवादी लोगों की बुराइयों से,
बाल के संग-संग चमड़े भी उधेड़ लेने वाले नाइयों से,
हर किसी के मुँह से निकलने वाले स्वर से,
और शायद सच बोलने पर न्यायपालक ईश्वर से।