सभ्यता का चरमोत्कर्ष
मंद-मंद हलकी-हलकी बहती हवा
ने कानों में आकर मुझसे कहा,
"चल मैं ले चलूँ तुझको,
तू जाना चाहती है जहाँ।"
मैंने कहा,"ऐ हवा!
तू तो घूमती यहाँ-वहाँ,
बता कोई ऐसी जगह,
शांति पा सकूँ मैं जहाँ।"
गम्भीर होकर उसने कहा,
"प्रगति की अंधी दौड़ है जहाँ,
भला उस भावना-शून्य दुनिया में,
शांति मिलेगी तुझे कहाँ?"
हताश होती हुई मैं बोली,
"क्या तुझे ऐसी जगह न मिली?
भले वह इस पृथ्वी से बाहर हो,
पर खिलती हो जहाँ शांति की कली।"
जवाब मिला, "ऐ नादान!
क्या सचमुच तू है अनजान?
चाँद पर भी मानव का कब्ज़ा है अब,
छोटा-सा मसला है अब यह जहान।"
"निकट भविष्य में चाँद में
तरलाई न होगी, न मन में
आएगी शांति की बात।
कोई मज़ा ना होगा जीवन में।"
"तब सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर पहुँच
होगी तू भी दासी विज्ञान की
रक्षा के कवचों में घिरकर भूल जाएगी,
बात तू भी प्रकृति के गुनगान की।"
No comments:
Post a Comment