अंतरिक्ष में मानव
इस विषय पर सोचते हुए अचानक याद आया,
कभी किसी कवि ने क्या खूब था गाया।
उन्होंने कामना की थी,
'चढ़ जाएँ धरा से सूर्य किरण पर राग-रथी'
और आज का मानव करने जा रहा है वह आकांक्षा पूरी,
किरणों को तो पा चुका, सूर्य से भी नहीं है ज़्यादा दूरी।
कौन मानेगा, यह मानव कभी था इस धरती से अंजान,
अब तो अंतरिक्ष भी बन गया उसके लिए पिकनिक का स्थान।
अपनी हर दिन बढ़ती प्रगति से वह खुश हो रहा है,
बेख़बर कि इन कलापों से कोई रुष्ट हो रहा है,
वह जिसने बनाई सृष्टि,
जी हाँ! वह है हमारी प्रकृति।
अरे ओ अंतरिक्ष में जाते मानव!
सूर्य की ओर क़दम बढ़ाते मानव!
भूलना नहीं सूर्य-ताप से तू नष्ट भी हो सकता है,
अंतरिक्ष की ख़ातिर धरती को भूलने का तुझे कष्ट भी हो सकता है।
अंतरिक्ष का खिलाड़ी बनने वालों! तुम शायद चैन से जियोगे-मरोगे,
पर भावी पीढ़ी की भी सोचो, उसे तुम क्या दे सकोगे?
वायु-जलहीन अंतरिक्ष में घर?
घुटता-सा जीवन कष्टों में घिरकर?
आज अंतरिक्ष तुम्हें खिलौना भले लगे, पर कल ये तुम्हें खिलवा सकता है,
भूलो मत! प्रकृति का अंग है, छेड़ोगे तो दंड दिलवा सकता है।
मैं यह नहीं कहती कि अपनी प्रगति रोको,
पर अंतरिक्ष के पहले धरती के भूखों को देखो।
क्या दोगे तुम उन्हें अंतरिक्ष अभियानों से?
पृथ्वी पर घर-विहीनों को अंतरिक्ष के मकानों?
जिस दिन तुममें ताकत आ जाए, नई ओजोन बना सको,
उस दिन अंतरिक्ष का रुख करना, भयमुक्त हो इसे मिटा सको।
जिस दिन यह निश्चित कर लो, मानव अंतरिक्ष को बाँटेगा नहीं,
वहाँ जाकर पृथ्वी के समान अपनों को काटेगा नहीं,
उस दिन वहाँ जाना और गर्व से पुकारना, "देवता और दानव!
मानव का नहीं कुछ बिगाड़ सकते तुम क्योंकि अब है अंतरिक्ष में मानव।"
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