Thursday, December 24, 1998

मैं समय हूँ

मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त,
तुम्हारी क्षमताओं से परे।

मैं ही हूँ वो
जिसने इस ब्रह्मांड को
बनाया है।
और स्वयं आगे बढ़ते हुए
इसे इस रूप में लाया है।

तुम नहीं जानते
कि 'बिग-बैंग' हुआ था या नहीं,
मैं जानता हूँ।
तुम नहीं जानते
कि कैसे बना था सूर्य,
मैं जानता हूँ।
तुम बस अनुमान लगा सकते हो
कि कैसे बनी, पिघली व
फिर से बनी थी पृथ्वी,
मैंने सबकुछ देखा है।

मैंने देखा है
मानवों का अवतरण इस धरती पर।
मैंने महसूस किया है
उन आदिमानवों के जीवन को
जिन्होंने सूर्य की चमक में
मेरा स्वागत किया था।
रात्रि का काला आवरण पहन
मैंने उन्हें डराया भी था।

क्यों मैं इतना क्रूर था?

क्योंकि यही मेरा कर्तव्य था।

क्योंकि इसी ने प्रेरित किया था
कारण और निदान की खोज को।
क्योंकि इसी ने उत्प्रेरित किया था
सभ्यता के विकास को।

हाँ, मैं वही समय हूँ,
जिसे उन आदिमानवों ने
रात और दिन से ज़्यादा टुकड़ों में
विभाजित नहीं किया था।
और जिसकी मार और सहारे से
तुम विकसित होते गये।
और आज इस अवस्था में पहुँच गए हो
कि मेरे छोटे-सो-छोटे अंश को
माप लेना चाहते हो।
तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ गई हैं
कि तुम मुझे, समय को अपने वश में कर लेना चाहते हो।

मग़र याद रखो,
कि तुम मेरी पैदाइश हो,
मेरे अधीन हो।
मैं तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ नहीं कुचल रहा,
मैं तुम्हें पूरा मौका दूँगा
कि तुम मेरी शिला पर
कुछ ऐसे लेख लिख जाओ
जो कोई न मिटा पाए।
वैसे ही जैसे
अशोक, चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने लिखे हैं।
वैसे ही जैसे
लक्ष्मीबाई, चेनम्मा, जॉन-ऑफ़-आर्क ने लिखे हैं।
वैसे ही जैसे
बहुत से औरों ने लिखे हैं।

यह तुमपर निर्भर करता है
कि तुम इन लिखने वालों की
श्रेणी में आना चाहते हो
या खो जाना चाहते हो
उन लाखों की भीड़ में
जिनका आज कोई
नाम तक नहीं जानता।
यह सब
तुमपर निर्भर करता है।
बढ़ो जहाँ तक बढ़ सकते हो।
मग़र याद रखो
कि तुम्हारी हर क्षमता से ऊपर
मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त।
मैंने बहुतों को अपना ग्रास बनाया है।
तुम भी उनमें से एक होओगे।
मैं समय हूँ,
अनादि-अनन्त,
तुम्हारी क्षमताओं से परे।

Monday, December 21, 1998

विरोधाभास

क्यों होता है इतना विरोधाभास
मेरी ही सोच में कल और आज?
तुम पूछते हो मुझसे अक्सर,
गर्वित होते हो प्रश्न अनुत्तरित पूछकर।

तुम मानो या ना मानो
मनवा तो नहीं सकती मैं।
पर यह सच है कि मैं आदमी हूँ, पत्थर नहीं,
इसलिए अक्सर बदलती हूँ मैं।

ज्ञानेंद्रियाँ अभी जीवित हैं मेरी,
नित नए-नए अनुभव कराती हैं,
मेरी समझ और मानसिकता में
इस तरह बदलाव लाती हैं।

नई चीज़ें गर अच्छी लगें
तो स्वीकारना मेरी आदत है,
शाश्वत सत्य कुछ है नहीं,
आज के सत्य की पूजा मेरी इबादत है।

जिस दिन सोच का यह लचीलापन
इंसानी दिमाग़ से ख़त्म हो जाएगा,
उस दिन के बाद न तो नए सिद्धांत जनमेंगे
ना ही कोई नया आविष्कार हो पाएगा।

उस दिन मानव सभ्यता के इंतकाल की
खुली और घोषित शुरुआत हो जाएगी।
विकास और उत्थान से जुड़ी उसकी क़िस्मत
उसी दिन से बर्बाद हो जाएगी।

Thursday, November 12, 1998

सपने और दिमाग़

"मुझे ये ज़मीं नहीं
वो आकाश चाहिए।
ये साधारण पत्थर नहीं
वो चाँद चाहिए।"

"ये आग नहीं चाहिए
मुझे सूरज को पकड़ना है।
नदी-झरनों का है क्या करना
मुझे आकाशगंगा में उतरना है।"

"ये पेड़, या फल-फूल नहीं
वे सारे तारे चाहिए।
पत्थर की मूर्ति नहीं, हैं ग़र तो
भगवान खुद ही हमारे चाहिए।"

-- मेरे सपनों ने कहा।

"मूर्ख ग़र सोचता है कि
क्षमताएँ हैं तेरे अंदर,
तो बना देता ना क्यों
धरती को ही तारों का घर।"

"आँखों से पर्दा हटा तो ज़रा तू,
चाँद भी पत्थर ही है मान जाएगा।
आकाशगंगा काल्पनिक है मानता न क्यों,
इन झरनों का आनंद कहीं और न पाएगा।"

"तारों की चमक अंधा बना सकती है,
फूलों की कोमलता का सकून और कहाँय़
ये आग जिसने पकाई थी पहली रोटी,
सूरज की प्रचंडता में है मान वो कहाँ?"

"ढूँढ़ना चाहता है भगवान को ग़र तू
झाँक अपने अंदर कुछ नहीं वो विश्वास है तेरा।
देख उनकी ओर जिनके सपने नहीं बचे,
आँखों में उनकी मिल जाएगा भगवान वो तेरा।"

-- मेरे दिमाग़ ने कहा।

Tuesday, November 10, 1998

कवि कैसे बने

जब अपने ही दिमाग़ में
बम फट रहा हो,
अपने ही सपनों का
क़त्ल हो रहा हो.
तो कश्मीर के प्रति
सहानुभूति कैसे आए?

बहुआयामिता से डरकर,
विविधताओं में उलझकर,
जब कोई अपना ही रास्ता
पाने ना पाए,
तो कवि कैसे बने वो?
दुनिया को क्या राह दिखाए?

जब अपनी ही क़िस्मत
उसे गरीब नज़र आए,
ओर भविष्य अंधकार का
दूसरा नाम वो पाए,
तो भिक्षुक और प्रतिहारिणी पर
कैसे वो दया दिखाए?

मानवता भविष्य बना नहीं पाती,
भावनाएँ रोटी दिला नहीं पाती,
इनकी हार के और निर्बलता के किस्से
हर वक़्त उसकी आँखों के आगे आएँ,
तो मानवता पर विश्वास कैसे करे वो,
कैसे वो पाए भावनाएँ?


Friday, November 06, 1998

तुम्हारे बाद

मंज़िलें हैं, रास्ते हैं,
दूरियाँ हैं, माध्यम है।
बस प्रोत्साहन नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।

रिश्ते हैं, नाते हैं,
लोग अपने बनते जाते हैं,
पर अपनत्व नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।

हवाई जहाज, रेलगाड़ियाँ हैं,
न कुछ हो तो बैसाखियाँ हैं,
एक सहारा नहीं है,
कहीं तुम्हारे बाद।

Tuesday, October 20, 1998

बचपन कैसे बीत जाता है

जब दीवाली के पटाखों में
शोर सुनाई देता है,
उनसे उठने वाले धुएँ में
प्रदूषण नज़र आता है,
जब जलती फुलझड़ियों में
जलता पैसा दिखने लगता है,
जब थोड़ी खुशियाँ मनाने में
समय नष्ट होने लगता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब आँखों की भोली उत्सुकता
संदेह में बदल जाती है,
जब छोटी-छोटी जिज्ञासाएँ
प्रश्नों के सागर बन जाती हैं,
जब घर-आँगन के बाहर भी
एक दुनिया नज़र आती है,
जब सामाजिकता और परिस्थितियाँ
ज़िम्मेदारियाँ नई लाती हैं,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब बमों व बंदूकों के स्वर
साधारण पटाखे नज़र आते हैं,
जब चंदामामा प्यारे न रहकर
पत्थर को ढेर बन जाते हैं,
जब सूरज नहीं चलता आकाश में,
पृथ्वी घूमने लगती है,
जब स्थिरता और गति जीवन की
सापेक्षिक लगने लगती है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

जब आसमान सपना हो जाता,
धरती तक दुर्लभ लगती है,
मेहनत का मतलब समझ में आता है,
कठिनाइयाँ जीवन का सच बनने लगती हैं,
जब माँ का आँचल, पिता का हाथ भी
सुरक्षा में असमर्थ हो जाता है,
जब जीवन रूपी यह संघर्ष
मानसिक परिपक्वता लाता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।

Wednesday, October 07, 1998

सबसे बड़ा अजूबा

सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

आदमी का जन्म लेना
जीवन जीना, हँसना-रोना,
मिट्टी में मिल जाना एक दिन
खेल खत्म हो जाना उस दिन
आश्चर्य इससे बड़ा कोई है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

आदमी ही है वो जिसको
रोटी तक नसीब न होती,
आदमी ही वो भी बना है
किस्मत जिसके पाँवों की जूती।
विरोधाभास ऐसा मिला कहीं है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

दो आँखें हैं, दो हाथ हैं,
दो कान और एक ही नाक है,
खून का रंग भी लाल ही तो है,
पर मिलती नहीं दोनों की जात है।
तर्क इसके पीछे कोई है?
"सत्य" से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

अपनों को ही काट रहे हैं,
बाँट रहे हैं, तोड़ रहे हैं,
बड़े घर में शायद दम घुट रहा,
इसलिए टुकड़ों में तोड़ रहे हैं।
स्थिति अजीब ऐसी कहीं है?
सत्य से बढ़कर अजूबा
संसार में और नहीं है।

Friday, June 12, 1998

मैं कानून हूँ

मैं कानून हूँ -
बहुत लंबा सफ़र
कर चुका हूँ तय।
मनुस्मृति से आज की
आचार-संहिताओं तक।
बारह तख़्तियों से
नेपोलियन कोड और
लोकतंत्रात्मक स्वरूप तक।

उपयोग, अर्थ, आवश्यकता
सभी बदलती रही हैं मेरी।

मैं जानता हूँ -
अपनी सच्चाई,
अपनी मजबूती,
अपनी शक्ति
और इन सबके साथ
अपना अंधापन
अपनी असहाय स्थिति।
क्योंकि
ऊपर वाले ने नहीं की
इतनी कृपा मुझपर
कि एक मूर्त स्वरूप दे देता
मुझे,
ताकि मैं देख सकता
ज़ुर्म और बेग़ुनाही का अंतर।
ताकि सुन सकता मैं
पीड़ितों की मर्मांतक चीखें।
ताकि अपने लम्बे हाथों को
पहुँचा सकता सच्चे कसूरवार तक।
ताकि हर आँख के आँसू
अपने ही हाथों से पोछ सकता मैं।
ताकि हर न्याय प्राप्ति के इच्छुक को
दे सकता मैं इच्छित भेंट।
ताकि अपने शरीर पर
बड़े-बड़े दंश झेलकर भी
रोक सकता मानवता के वृक्ष में
ज़हर घुलने से।
ताकि हर ग़ुनाह का चश्मदीद गवाह बनकर
आता मैं कटघरे में
और तुम
मानते मेरी बात, गीता की कसम खाए बिना भी
क्योंकि उसकी झूठी कसम भी तो नई बात नहीं।

लेकिन नहीं किया ईश्वर ने ऐसा
तुम पर छोड़ दिया
कि मुझे स्वरूप दो चाहे जैसा।
एक मूर्ति के रूप में बैठा दिया
तुमने मुझे
उसपर भी आँखों में पट्टी बाँधकर
एक तराजू हाथों में डालकर।

नहीं देख सकता मैं
कि जिसने तराजू डाला है हाथों में
उसके ही हाथ तो खूनी नहीं?

नहीं देख सकता मैं
कि तराजू के पलड़े में मिट्टी चढ़ी है या सोना,
और उसे बराबर किया है
लाल रंग ने या किसी के खून ने।

और इसलिए
मेरे हिस्से पड़ती हैं
गरीबों की दुत्कार व बददुआएँ
और धनवानों के मज़ाक और कुटिल ठहाके।

क्या करूँ मैं?
तुम्हें सुना भी तो नहीं सकता
अपनी व्यथा-कथा।

क्या तुम सुन रहे हो
मेरी भावनाओं की आवाज़?
जो अमूर्त हैं और सबकुछ समझती हैं
पर व्यक्त करने के लिए वाणी
या मौन अभिव्यक्ति के लिए
खुली आँखें नहीं हैं।

Thursday, June 04, 1998

जीवन

बचपन
अपने काल्पनिक सीमित आकाश में
बड़े होकर उड़ने की आकांक्षा।
जिन्हें जोड़कर पहुँच सकते हैं आकाश में
वे चार बड़े बाँस खरीदने की इच्छा।

यौवन
बचपन के सँजोए हुए सपनों का
कभी बनता, व प्रायः टूटता मंदिर।
आकाश नहीं, बस कहीं एक कतरा ज़मीन
पा लेने को व्याकुल दिमाग और दिल।

बुढ़ापा
पूरे जीवन का लेखा-जोखा करता मन
मिट्टी में मिलने की प्रतीक्षा करता तन।
काटते हुए अपने बोए बीजों को
उनमें अपने वजूद को तलाशते पूर्व कर्म।

जीवन
कमोबेश
इन सबका संगम।

Saturday, March 28, 1998

जी कहीं भर आया है

लाख नकारो सम्बन्धों को,
लाख सँभालो भावनाओं को,
पर भूलना आसान नहीं होता
उन दुआओं व बददुआओं को।

जो जुड़ी होती हैं कहीं से,
किसी से जो सम्बद्ध होती हैं,
कितनी ही कही-सुनी कथाओं से
जो कहीं-न-कहीं निबद्ध होती हैं।

जिन्होंने मुझे बिगाड़ा है, बनाया है,
मेरे संसार को उजाड़ा है, सजाया है,
वो फिर दुबारा नहीं मिलेंगी कभी
सोच कर जी तो भर ही आया है।

अच्छे भी हैं, बुरे भी हैं,
पर मेरे जीवन का हिस्सा तो हैं,
रुलाया हो मुझे या हँसाया हो,
ज़िन्दग़ी से जुड़ा एक किस्सा तो हैं।

अतीत हमेशा होता है सुहाना
तो भविष्य में ये चीज़ें अच्छी लगेंगी ही,
देखने को अपना यह चमन
निग़ाहें कभी तो तरसेंगी ही।

क्योंकि जो भी मिला है
वह स्वयं में अद्भुत है।
जब कभी भी इनकी ज़रूरत पड़ेगी
तब तो ये यादें ही सहारा बनेंगी।

आभारी मैं उन लम्हों के लिए तो हूँ ही
जिन्होंने छोटी-छोटी खुशियाँ दी हैं।
वे बातें भी दिलों के छूती हैं,
जिनमें मैंने हँसी बाँटी है।

आँसू भी बहाए हैं मैंने
जो आगे फिर याद आएँगे,
अच्छे-बुरे सब मिलकर
राह के पाथेय बन जाएँगे।

इतना लंबा अरसा जिसने
बहुत कुछ मुझे सिखाया है,
छोड़ने में जुड़ी दुनिया उससे
सचमुच जी कहीं भर आया है।


Friday, March 20, 1998

ऐ तारों!

ऐ तारों! देखकर तुम्हें आकाश में
मुझे कुछ-कुछ अहसास होता है,
कुछ है, इनसे अलग, अलग इस जहाँ से
ऐसा कुछ-कुछ विश्वास होता है।

कौन हो तुम?
संतुष्ट कर नहीं पाया मुझे विज्ञान।
सोचती हूँ जब तुम्हारे अस्तित्व की बात,
लगता है दुनिया भी है अज्ञान।

कौन हो तुम?
क्या आदिम मानव की आविष्कृत
प्रकाश की पहली ज्योति?
या किसी भूखे द्वारा ढूँढ़ी गई
पहली-पहली रोटी?

या मानव के मुँह से निकली
पहली वो बोली?
जिसने भरी पहली बार
सभ्यता की झोली?

या किसी के गले से निकला
पहला-पहला गीत?
जो तुम्हारी ही तरह बन गया
सदा के लिए मानव का मीत?

या उस अव्यक्त सत्ता का
कोई मूर्त प्रतीक
जिसके आगे कोई भी
पा न सका जीत?

या कुछ और ही
मेरी कल्पनाओं से भी परे
जिसको नाम देने के लिए भटकती हूँ
आशाओं की झोली भरे?

या कुछ और जो बाहर है
इस कलम की भी पहुँच से.
वो जो मैं पूछ नहीं पा रही
यहाँ तक कि ख़ुद से?

Tuesday, February 17, 1998

ये तो मेरा ही दिल था

किसी ने मुझे एक किस्सा सुनाया,
"चाँद से तो मैं लौट आया,
सारा विश्व सो घूम चुका मैं
पर उसे मैंने कहीं न पाया।"

"कई बार राहों में गुज़रते हुए
अक्सर गलियों में भटकते हुए
उसकी दर्द भरी चीख सुनकर
रुक गए पैर कुछ ठिठकते हुए।"

"ढूँढ़ा उसे मैंने चारों ओर
रात भर भी और हो गई भोर।
आवाज़ें आती रहीं मगर
मिला ना उसका ओर या छोर।"

"सोचा शायद मिट्टी में वो दबी हुई हो,
पददलित हो शायद वहीं पर वो पड़ी हुई हो।
खोदने की कोशिश की मैंने मिट्टी
लेकिन फिर भी मुझे मिली नहीं वो।"

"मैं चलता ही गया इस आशा में
कि किरण कोआ मिलेगी ही निराशा में।
रात तो कटेगी ही अभी या कभी -
साहित्य की ख़ूबसूरत भाषा में।"

"चारों ओर उसकी चीखें ही चीखें
उसे ढूँढ़ना कोई कैसे सीखे?
खीझ कर भी मैं थक गया था,
रुक गया वहीं मुठ्ठियाँ भींचे।"

"तभी कहीं से आवाज़ आई -
'सही जगह तुम ढूँढ़ नहीं पाए भाई।
मैं तो तुम्हारे ही भीतर छिपी हूँ,
भरना चाहती हूँ दिलों की खाई'।"

"अविश्वास, खीझ और लेकर संदेह,
पाना चाहते हो मुझको सदेह?
बताओ मैं कैसे आऊँ तुम तक
जब तुम दे नहीं सकते मुझे नेह।"

"खो चुके हो तुम अपनी पहचान
इसलिए नहीं पा सके मेरा निशान
जगाओ एक बार मेरी आत्मा को
पाओगे मुझे अपने मित्र समान।"

कहकर इतना वह हो गया चुप,
मैं भी चुप थी, वह भी मूक।
"आख़िर यह किस्सा किसका था?"
जवाब मिला - "मानवता।"

ध्यान से देखा मैंने,
"वह कथाकार कौन था?"
ये तो मेरा ही दिल था।

Wednesday, January 28, 1998

कल्पनाएँ होती क्या हैं?

पूछा है तुमने अक्सर मुझसे
कल्पनाएँ होती क्या हैं?
मैं पूछती हूँ जब कोई सहारा नहीं होता,
तो मुझे अपने में डुबोती क्या है?

जब तुम एक नए उभरते विचार को
दबाना चाहते हो,
जब तुम किसी नहीं बनती परिभाषा को
मिटाना चाहते हो,
जब अपने सामने तुम किसी को
महत्वहीन समझते हो,
जब अपनी उत्तराधिकृत चीज़ों के आगे
किसी के स्वत्व को हीन समझते हो,
जब किसी पर थोप कर अपनी त्रुटियाँ
उसे ग्लानि का अहसास दिलाना चाहते हो,
जब तुम अपनी श्रेष्ठता और उसकी हीनता को
विश्व में चिल्ला कर बताना चाहते हो.
जब देख अपनी सत्ता पर खतरा
तुम गैलीलियो को झुकाना चाहते हो,
जब अपना आसन डोलता देख
मीरा को ज़हर पिलाना चाहते हो,

तब तुम जन्म देते हो
कल्पनाओं को किसी के मन में,
जो एकमात्र सहारा बनती हैं
उसका इस जीवन में।

उसकी कल्पनाएँ उड़ान भरती हैं,
जहाँ सहमकर कोई रहता नहीं,
डरकर तुम्हारी सत्ता से हर कोई
तुम्हारी ही ज़ुबाँ कहता नहीं।

जहाँ हर एक की भावनाओं का
आदर हुआ करता है।
जहाँ प्रेम के बदले सबको
प्रेम मिला करता है।

जहाँ सब दूसरों की
अच्छाइयाँ स्वीकारते हैं,
गलतियाँ माफ़ करते हुए
वह दुनिया सँवारते हैं।

तुम उस अद्भुत दुनिया को
यथार्थ क्या, कल्पनाओं में भी नहीं पाओगे।
तुम 'स्व' और 'स्व-भाव' से चिपटे लोग,
असीम-अनंत कल्पनाएँ कहाँ से लाओगे।

तुम खुशी इसी में समझते हो
कि लोग तुम्हारी पूजा करें,
और भले ही पीछे मुड़ते ही
तुम्हारी पीठ पर थूका करें।

दूसरों की गलतियाँ माफ़ नहीं करते तुम
तो अपनी गलतियाँ कैसे माफ़ करवाओगे?
बताओ ना, जब तक तुम बोझ बने रहोगे यहाँ,
वह अद्भुत, सलोनी दुनिया कैसे ला पाओगे?

जब तक काँटेदार बाड़ों से निकल कर
वनफूलों को समझ नहीं पाओगे,
कल्पनाएँ होती क्या हैं,
कैसे तुम समझ पाओगे?

Friday, January 09, 1998

अव्यक्त और मौन

जब हर ओर अँधेरा होता है
और हाथ को नहीं सूझता हाथ.
उस वक़्त प्रकाश-पुंज बन आता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब आत्मविश्वास रह नहीं जाता,
और कंधे थक जाते हैं भार से,
उस वक़्त आत्मशक्ति जगाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब किसी सहारे की ज़रूरत होती है,
और दोस्त कोई मिल पाता नहीं,
उस वक़्त अदृश्य एक हाथ बढ़ाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब खीझ और निराशा ही बचती है,
और ख़ुद से ही रूठ जाती हूँ मैं,
उस वक़्त चुपचाप ही मुझे मनाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब उलझनों में उलझ जाती हूँ,
और राह कोई दिखती नहीं,
उस वक़्त राह मुझे बताता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब असफलताओं से हार जाती हूँ,
और संबल टूटने लगता है,
तब सफलता की एक भेंट दिलाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब हैवानियत से तबाह हो जाती हूँ,
इन्सानियत से विश्वास उठने लगता है,
उस वक़्त एक इन्सान से मिलाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

बताओ कहाँ ढूँढ़ू मैं तुम्हें,
ऊपर चमकते आकाश में,
या सातवें आसमान में,
या दुनिया के विकास में?

मंदिर में या मस्ज़िद में,
सगुण में या निर्गुण में,
सागर में या नदियों में,
धनी में या निर्धन में?

या कहीं और?
खुद तक पहुँचने को एक प्रकाश-पुंज दिखा दो,
या कोई अदृश्य हाथ बढ़ा दो,
या फिर से थोड़ा संबल दिला दो,
या थोड़ी सी आत्मशक्ति जगा दो।

तुम तक पहुँचने से मुझे रोक पाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।