अव्यक्त और मौन
जब हर ओर अँधेरा होता है 
 और हाथ को नहीं सूझता हाथ. 
 उस वक़्त प्रकाश-पुंज बन आता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब आत्मविश्वास रह नहीं जाता, 
 और कंधे थक जाते हैं भार से, 
 उस वक़्त आत्मशक्ति जगाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब किसी सहारे की ज़रूरत होती है, 
 और दोस्त कोई मिल पाता नहीं, 
 उस वक़्त अदृश्य एक हाथ बढ़ाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब खीझ और निराशा ही बचती है, 
 और ख़ुद से ही रूठ जाती हूँ मैं, 
 उस वक़्त चुपचाप ही मुझे मनाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब उलझनों में उलझ जाती हूँ, 
 और राह कोई दिखती नहीं, 
 उस वक़्त राह मुझे बताता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब असफलताओं से हार जाती हूँ, 
 और संबल टूटने लगता है, 
 तब सफलता की एक भेंट दिलाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
जब हैवानियत से तबाह हो जाती हूँ, 
 इन्सानियत से विश्वास उठने लगता है, 
 उस वक़्त एक इन्सान से मिलाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
बताओ कहाँ ढूँढ़ू मैं तुम्हें, 
 ऊपर चमकते आकाश में, 
 या सातवें आसमान में, 
 या दुनिया के विकास में?
मंदिर में या मस्ज़िद में, 
 सगुण में या निर्गुण में, 
 सागर में या नदियों में, 
 धनी में या निर्धन में?
या कहीं और? 
 खुद तक पहुँचने को एक प्रकाश-पुंज दिखा दो, 
 या कोई अदृश्य हाथ बढ़ा दो, 
 या फिर से थोड़ा संबल दिला दो, 
 या थोड़ी सी आत्मशक्ति जगा दो।
तुम तक पहुँचने से मुझे रोक पाता है कौन? 
 तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।
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