मेरे दोस्त!
क्या करूँ ज़िन्दग़ी के उन दोराहों पर, 
 जहाँ ज़बान ही चुप हो जाती है। 
 दिमाग़ तो कुछ नहीं ही कहता है, 
 आत्मा भी जब मूक हो जाती है।
जब अतीत कुछ याद नहीं आता, 
 भविष्य की योजना नहीं बन पाती, 
 वर्तमान एक कशमकश हो जाता है, 
 और खुद से खुद की ही ठन जाती।
जब सब कुछ अनजाना लगता है, 
 और महसूस होता है अपना बौनापन, 
 जब कंधे ढो नहीं पाते 
 चुनौतियों भरा ये जीवन।
जब गुस्सा भिंची मुठ्ठियों में छिप जाता है 
 और आँसू मुँदी पलकों में रह जाते, 
 सपने और भावनाओं से डर-सा लगता है 
 और दिल-ओ-दिमाग भी साथ छोड़ जाते।
तब महसूस होता है मुझे मेरे दोस्त! 
 कि मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। 
 कल्पना मात्र नहीं ये सब कुछ 
 यही जीवन की सबसे बड़ी हक़ीकत है।
नहीं जानती कि तुम्हारा काल्पनिक रूप 
 कहीं मूर्त है भी कि नहीं, 
 लेकिन किसी कोने में यह विश्वास है 
 कि भावनाएँ अभी मरी नहीं।
No comments:
Post a Comment