Wednesday, May 15, 1996

एक भयावह सपना

मैं थी एक कमरे में बंद
मेरे सामने न था कोई रंग,
न ही था कोई मेरे संग।

मैं न सूर्य को देखती थी न तारों को,
क्योंकि शायद भुला भी चुकी थी "असभ्यता" की मजारों को,
मैं तो उनके नाम भी न जानती थी,
उस कमरे को ही सारी दुनिया मानती थी।

"खट-खट" - दरवाज़े पर शायद आया कोई चोर,
पर सुरीली आवाज आई, "नहीं, मैं हूँ एक मोर।"
तुम नहीं जानती? प्रकृति का दूत।
सच चौंक गई मैं, कौन है यह भूत?

डरते-डरते दरवाजा खोला,
उस खूबसूरती को देख कर मेरा मन डोला।
पर कुछ समझ नहीं आया,
तब उसने मुझे खुला पंख दिखाया।

अब मैं उन पंखों पर हो सवार, शायद अतीत में उड़ी जा रही थी,
और खुद को कुछ अजीब हरे-भूरे प्राणियों के बीच पा रही थी।
और थे कुछ चलते उड़ते प्राणि,
बिना कवच के ही फिरते प्राणि।

आश्चर्य में मैंने पूछा,
"भाई! बताओ तो ये है क्या?"
उसका जवाब था, "प्रकृति"
ये थी भला कैसी अजीब सृष्टि।

अचानक मुझे एक झटका लगा,
किसी की चुहल का खटका लगा।
ओह! तो यो एक भयावह सपना था,
पर हमारे कितना करीब, कितना अपना था।
हमारा भविष्य ऐसा ही घुटता हुआ,
खुद से और सिर्फ खुद से लिपटा हुआ।

तभी तो मैंने भविष्य में भी खुद को देखा,
जबकि मेरे ख़्याल में कदापि संभव नहीं ऐसा
कि मैं उस भविष्य में रहूँ,
और उन परिस्थितियों को सहूँ।

पर भावी पीढ़ी को ही सही! यह भविष्य देगा कौन?
हम ही तो, इस सवाल पर आप सब क्यों हैं मौन।