Thursday, February 26, 2009

मन

मन क्यों ना तू खुश होता रे?

जब थीं दिल में उमंगें जागी,
जब सपने नए मिले थे सारे,
कितनी मन्नतें तब माँगी,
कितने देखे टूटते तारे।

अब जब झोली में हैं आए,
क्यों है तू यों थका-थका रे।
रस्ते का क्यों दर्द सताए,
सामने मंज़िल बाँह पसारे।

मन क्यों ना तू खुश होता रे?

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खुशी न जाने क्यों नहीं आती!

मंज़िल क्यों वैसी नहीं लगती,
जैसी थी सपनों में भाती,
जो भी पीछे छोड़ आया हूँ,
अलग ये उससे नहीं ज़रा सी।

प्रश्न है खुद से जिसको ढूँढ़ा
क्या वो कोई मरीचिका थी?
और उसे सब कुछ दे डाला
बची है बस ये राख चिता की।

खुशी न जाने क्यों नहीं आती!