Wednesday, January 28, 1998

कल्पनाएँ होती क्या हैं?

पूछा है तुमने अक्सर मुझसे
कल्पनाएँ होती क्या हैं?
मैं पूछती हूँ जब कोई सहारा नहीं होता,
तो मुझे अपने में डुबोती क्या है?

जब तुम एक नए उभरते विचार को
दबाना चाहते हो,
जब तुम किसी नहीं बनती परिभाषा को
मिटाना चाहते हो,
जब अपने सामने तुम किसी को
महत्वहीन समझते हो,
जब अपनी उत्तराधिकृत चीज़ों के आगे
किसी के स्वत्व को हीन समझते हो,
जब किसी पर थोप कर अपनी त्रुटियाँ
उसे ग्लानि का अहसास दिलाना चाहते हो,
जब तुम अपनी श्रेष्ठता और उसकी हीनता को
विश्व में चिल्ला कर बताना चाहते हो.
जब देख अपनी सत्ता पर खतरा
तुम गैलीलियो को झुकाना चाहते हो,
जब अपना आसन डोलता देख
मीरा को ज़हर पिलाना चाहते हो,

तब तुम जन्म देते हो
कल्पनाओं को किसी के मन में,
जो एकमात्र सहारा बनती हैं
उसका इस जीवन में।

उसकी कल्पनाएँ उड़ान भरती हैं,
जहाँ सहमकर कोई रहता नहीं,
डरकर तुम्हारी सत्ता से हर कोई
तुम्हारी ही ज़ुबाँ कहता नहीं।

जहाँ हर एक की भावनाओं का
आदर हुआ करता है।
जहाँ प्रेम के बदले सबको
प्रेम मिला करता है।

जहाँ सब दूसरों की
अच्छाइयाँ स्वीकारते हैं,
गलतियाँ माफ़ करते हुए
वह दुनिया सँवारते हैं।

तुम उस अद्भुत दुनिया को
यथार्थ क्या, कल्पनाओं में भी नहीं पाओगे।
तुम 'स्व' और 'स्व-भाव' से चिपटे लोग,
असीम-अनंत कल्पनाएँ कहाँ से लाओगे।

तुम खुशी इसी में समझते हो
कि लोग तुम्हारी पूजा करें,
और भले ही पीछे मुड़ते ही
तुम्हारी पीठ पर थूका करें।

दूसरों की गलतियाँ माफ़ नहीं करते तुम
तो अपनी गलतियाँ कैसे माफ़ करवाओगे?
बताओ ना, जब तक तुम बोझ बने रहोगे यहाँ,
वह अद्भुत, सलोनी दुनिया कैसे ला पाओगे?

जब तक काँटेदार बाड़ों से निकल कर
वनफूलों को समझ नहीं पाओगे,
कल्पनाएँ होती क्या हैं,
कैसे तुम समझ पाओगे?

Friday, January 09, 1998

अव्यक्त और मौन

जब हर ओर अँधेरा होता है
और हाथ को नहीं सूझता हाथ.
उस वक़्त प्रकाश-पुंज बन आता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब आत्मविश्वास रह नहीं जाता,
और कंधे थक जाते हैं भार से,
उस वक़्त आत्मशक्ति जगाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब किसी सहारे की ज़रूरत होती है,
और दोस्त कोई मिल पाता नहीं,
उस वक़्त अदृश्य एक हाथ बढ़ाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब खीझ और निराशा ही बचती है,
और ख़ुद से ही रूठ जाती हूँ मैं,
उस वक़्त चुपचाप ही मुझे मनाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब उलझनों में उलझ जाती हूँ,
और राह कोई दिखती नहीं,
उस वक़्त राह मुझे बताता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब असफलताओं से हार जाती हूँ,
और संबल टूटने लगता है,
तब सफलता की एक भेंट दिलाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

जब हैवानियत से तबाह हो जाती हूँ,
इन्सानियत से विश्वास उठने लगता है,
उस वक़्त एक इन्सान से मिलाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।

बताओ कहाँ ढूँढ़ू मैं तुम्हें,
ऊपर चमकते आकाश में,
या सातवें आसमान में,
या दुनिया के विकास में?

मंदिर में या मस्ज़िद में,
सगुण में या निर्गुण में,
सागर में या नदियों में,
धनी में या निर्धन में?

या कहीं और?
खुद तक पहुँचने को एक प्रकाश-पुंज दिखा दो,
या कोई अदृश्य हाथ बढ़ा दो,
या फिर से थोड़ा संबल दिला दो,
या थोड़ी सी आत्मशक्ति जगा दो।

तुम तक पहुँचने से मुझे रोक पाता है कौन?
तुम कहीं तो हो ही, अव्यक्त और मौन।