Monday, June 24, 1996

कल्पनाएँ

निरुत्तर रहना पड़ता है इस प्रश्न पर कि कल्पनाओं में क्यों हो जीती,
अब क्या बताऊँ कि यथार्थ नहीं जो दे पाता, वह कल्पनाएँ ही तो हैं देती।
माना कि कोरी कल्पनाओँ से चलता नहीं जीवन है,
पर कम-से-कम सुखी जीवन का तो मिलता एक आश्वासन है।
कल्पनाएँ और कुछ नहीं तो एक सुखद अहसास होती हैं,
जब दिल टूट जाते हैं तो उनकी एकमात्र बची आस होती है।
कल्पनाओं में सचमुच बड़ा ही बल है,
ये दुखियों को भी देतीं जीने का संबल है।
कल्पनाएँ यथार्थ की भी पूरक हैं,
जब यथार्थ से जी घबराए तो बचने की एकमात्र सूरत हैं।
यथार्थ का सामना करने हेतु ऊर्जा-स्रोत कल्पना है,
ये अहसास कराती हैं कि जीवन में कुछ तो अपना है,
क्योंकि यथार्थ तो अपना हो नहीं सकता,
तो कम-से-कम कल्पनाएँ कोई खो नहीं सकता।

तो कल्पना में हम डूब नहीं सकते, पर कल्पना करना नहीं बुरा है,
यथार्थ से उसे अलग नहीं कर सकते, दोनों में एक संबंध जुड़ा है,
आज के यथार्थ में कोई भी पागल हो जाए,
यदि वह जीवन में कभी कल्पनाओं का सहारा न पाए।

Saturday, June 15, 1996

समाज का पोस्टमार्टम

मैं एक डाक्टर के वेश में,
जुटी हुई थी एक गंभीर केस में,
एक रोगी समाज नाम था जिसका,
जाने उसे रोगी बनाने का काम था किसका?
एक साथ कई बीमारियों से ग्रस्त था,
अपनी दयनीय हालत से वह त्रस्त था,
पर यह क्या! वह तो मर चुका था,
यमदूत मुझसे पहले ही अपना काम कर चुका था,
पोस्टमार्टम से पता चला, कई बीमारियाँ थीं उसे,
वह 'लावारिस' लाश सौंपती भला मैं किसे?
उसकी त्वचा का रोग था भ्रष्टाचार,
दिमाग़ ख़ुद से निकाल चुका था शिष्टाचार,
हिंसा, स्वार्थ और दूसरों के खून से भर,
फट चुका था उसका ब्रेन-ट्यूमर।
दानव का रक्त भरने से उसे हो गया था ब्लड कैंसर,
परोपकार रूपी हृदय के खत्म होने से वह गया था मर।
उसकी ज़बान में भी था रोग,
जो त्याग छोड़ चाहती थी सिर्फ़ भोग।
पैर नहीं टिक सकते थे ज़मीन पर,
उन्हें बीमारी थी चलने की खून पर।
हाथों की बीमारी, वे काम न कर सकते थे
बस काम तमाम कर सकते थे।
उसकी सिरदर्द थी संस्कृति,
पेट में दर्द का कारण थी प्रकृति।
अनास्था का अपेंडिक्स उसे शूल सा चुभता था,
अपनी दशा से वह मन-ही-मन कुढ़ता था,
फिर भी बीमारियों के पथ से नहीं मुड़ता था,
बंदूकों पर हो सवार क्षय रोग की उड़ान भरता था।
ऊपर-ऊपर मीठी बोलने से उसे हुई थी शुगर की बीमारी,
उसकी कुटिलता रूपी बीमारी के आगे ईश्वर की शक्ति भी हारी,
ब्रेन कैंसर ने भी उसका पीछा न छोड़ा था,
आख़िर ख़ुद उसने ही तो ख़ुद को उस ओर मोड़ा था।

इस दास्तान को सिर्फ कविता समझ कर भूल न जाना,
ख़ुद को ऐसी राह पर कहीं से भटक-भूल न लाना,
वर्ना तुम्हारे पोषक समाज का हश्र यही होगा,
उस पेड़ की शाख होने का कष्ट तुम्हें भी होगा।

Thursday, June 13, 1996

आदमी की तलाश

यहाँ हर किसी को किसी की तलाश है,
हर किसी को किसी की लगी एक प्यास है,
एक 'विवेकशील' प्राणि,
नाम जिसका है आदमी,
उसे आखिर किसकी तलाश है?
वह किसके लिए लगाए एक आस है?
किसके लिए वह ऐसे पथ पर बढ़ रहा है,
जहाँ मानव, मानव से ही मर रहा है,
जहाँ उसे मालूम ही नहीं वह कैसे कर्म कर रहा है,
और बिन मंज़िल के ही रास्ते पर बढ़ता चल रहा है।
यह उस पर सवार कैसा जुनून है,
जो से लेने नहीं देता सुकून है?
क्या मिल रहा है या मिलेगा उसे यह सब कर के?
अच्छा हो यदि वह इसका भी जवाब सोच ले।
वह दुनिया जहाँ न प्यार हो न जज़्बा,
न हो समाज, न गाँव, शहर, न कस्बा,
बस बंदूक ले कर मारने पर उतारू मानवों का ढाँचा,
सच्चे मानव बनाने वाला टूट चुका होगा साँचा।
वहाँ न बहन की प्यारी झिड़की होगी, न माँ का ममता,
बंदूक की सम्पत्ति रखने वाले मानवों के बीच होगी अर्थ की समता।
वहाँ न होगी बच्चों की शरारत,
न ही जीवन निर्वाह की कोई हरारत।
हर किसी के हाथों कोई जीवन नष्ट हो रहा होगा,
और सत्कर्म बेबस पड़ा, इस सृष्टि से रुष्ट हो रहा होगा।
वहाँ छात्र बंदूक संस्कृति को सही मानेंगे,
'स्व' की परिधि से निकलने की कला को नहीं जानेंगे।
वह मानव, मानव नहीं, पृथ्वी पर दाग होगा,
नर के वेश में पृथ्वी पर विचरता बाघ होगा।

Monday, June 03, 1996

शिष्टाचार महान् है

शिष्टाचार,
सभ्य जीवन की आधार,
भला क्या है उसमें?
उसका सही रूप पाते हैं किसमें?
जिसके पास सबसे बड़ा झूठ-फ़रेब है,
वह ऐसा है जैसा अन्दर से सड़ा, ऊपर से लाल सेब है।
..................................... क्यों?
इसका भी जवाब लो।

एक व्यक्ति निरभिमानी,
जी हाँ, शिष्टाचार का धनी।
कोई पढ़ सके तो पढ़ ले उसका मन,
क्या सचमुच उसमें नही अभिमान?
है, मगर फिर भी वह शिष्ट है,
और यह समाज उससे नहीं रुष्ट है,
जो दिल की बात छिपा झूठ में खुद को तुच्छ कहता है,
और यह समाज दिल खोलकर रखने वालों से रुष्ट रहता है।

एक व्यक्ति निःस्वार्थी,
शिष्ट और परमार्थी।
क्या है उसमें परमार्थ सही?
क्या सचमुच उसमें स्वार्थ नहीं?
निःस्वार्थी बनने पर समाज में मिलती इज्जत का भी नहीं?
उस लोक में जाने पर ईश्वर की मोहब्बत का भी नहीं?
बेशक़ यह भी है ख़ुदगर्ज़ी,
पर समाज के लिए ये है इन्सानियत की मर्ज़ी।

लेकिन........................................ फिर भी

यह शिष्ट आचार है,
सभ्य जीवन की आधार है,
बग़ैर इसके जीवन निराधार है,
एक हद तक सत्य का बलिदान है,
फिर भी मानते आए हैं, और ज़बर्दस्ती भी मानना पड़ेगा,
शिष्टाचार महान् है।