आदमी की तलाश
यहाँ हर किसी को किसी की तलाश है,
हर किसी को किसी की लगी एक प्यास है,
एक 'विवेकशील' प्राणि,
नाम जिसका है आदमी,
उसे आखिर किसकी तलाश है?
वह किसके लिए लगाए एक आस है?
किसके लिए वह ऐसे पथ पर बढ़ रहा है,
जहाँ मानव, मानव से ही मर रहा है,
जहाँ उसे मालूम ही नहीं वह कैसे कर्म कर रहा है,
और बिन मंज़िल के ही रास्ते पर बढ़ता चल रहा है।
यह उस पर सवार कैसा जुनून है,
जो से लेने नहीं देता सुकून है?
क्या मिल रहा है या मिलेगा उसे यह सब कर के?
अच्छा हो यदि वह इसका भी जवाब सोच ले।
वह दुनिया जहाँ न प्यार हो न जज़्बा,
न हो समाज, न गाँव, शहर, न कस्बा,
बस बंदूक ले कर मारने पर उतारू मानवों का ढाँचा,
सच्चे मानव बनाने वाला टूट चुका होगा साँचा।
वहाँ न बहन की प्यारी झिड़की होगी, न माँ का ममता,
बंदूक की सम्पत्ति रखने वाले मानवों के बीच होगी अर्थ की समता।
वहाँ न होगी बच्चों की शरारत,
न ही जीवन निर्वाह की कोई हरारत।
हर किसी के हाथों कोई जीवन नष्ट हो रहा होगा,
और सत्कर्म बेबस पड़ा, इस सृष्टि से रुष्ट हो रहा होगा।
वहाँ छात्र बंदूक संस्कृति को सही मानेंगे,
'स्व' की परिधि से निकलने की कला को नहीं जानेंगे।
वह मानव, मानव नहीं, पृथ्वी पर दाग होगा,
नर के वेश में पृथ्वी पर विचरता बाघ होगा।
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