कल्पनाएँ
निरुत्तर रहना पड़ता है इस प्रश्न पर कि कल्पनाओं में क्यों हो जीती,
अब क्या बताऊँ कि यथार्थ नहीं जो दे पाता, वह कल्पनाएँ ही तो हैं देती।
माना कि कोरी कल्पनाओँ से चलता नहीं जीवन है,
पर कम-से-कम सुखी जीवन का तो मिलता एक आश्वासन है।
कल्पनाएँ और कुछ नहीं तो एक सुखद अहसास होती हैं,
जब दिल टूट जाते हैं तो उनकी एकमात्र बची आस होती है।
कल्पनाओं में सचमुच बड़ा ही बल है,
ये दुखियों को भी देतीं जीने का संबल है।
कल्पनाएँ यथार्थ की भी पूरक हैं,
जब यथार्थ से जी घबराए तो बचने की एकमात्र सूरत हैं।
यथार्थ का सामना करने हेतु ऊर्जा-स्रोत कल्पना है,
ये अहसास कराती हैं कि जीवन में कुछ तो अपना है,
क्योंकि यथार्थ तो अपना हो नहीं सकता,
तो कम-से-कम कल्पनाएँ कोई खो नहीं सकता।
तो कल्पना में हम डूब नहीं सकते, पर कल्पना करना नहीं बुरा है,
यथार्थ से उसे अलग नहीं कर सकते, दोनों में एक संबंध जुड़ा है,
आज के यथार्थ में कोई भी पागल हो जाए,
यदि वह जीवन में कभी कल्पनाओं का सहारा न पाए।
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