Saturday, July 27, 1996

नारी मुक्ति

नारी मुक्ति का एक सुनहरा स्वप्न,
उसकी आशा भरी आँखों में था बंद।
दुनिया की नज़रों में वे आँखें खुली थीं,
पर, वह नारी थी, जिसे आँखें बंद करने के लिए ही मिली थीं,
फिर भी मुक्ति के बल पर,
परंपराओं से लड़ किसी तरह अधखुली थीं।

वह दो नावों की अकेली नाविक और सवार,
आख़िर कब तक ना माने ज़िन्दग़ी से हार?
सोचती कि काश! नारी मुक्ति का स्वप्न न पाला होता,
कम-से-कम कोई दया तो करने वाला होता।

पर अब तो न सहयोग है, न दया की भीख,
हर देने वाला दे कर चला जाता है कोई सीख।
उससे घर को आराम चाहिए,
उससे बाहर को काम चाहिए,
काम, काम, काम है उसकी दिनचर्या
चाहे दफ़्तर की कुर्सी हो या हो घर की शय्या।

लड़के वाले देखने आए,
रूप गुण तो खूब भाए।
लड़की नौकरी-पेशा है, ये तो हमें चाहिए,
पर एक और सवाल का भी तो जवाब लाईए,
"लड़की को और क्या-क्या सिखलाया?"
जी हुआ पलट के पूछे, "लड़के को है क्या बतलाया?"
पर क्या आपका दिमाग़ हुआ है ख़राब?
आप लड़की हैं, भूलें मत, वह लड़का है जनाब।

और फिर पत्नी, बहू, माँ और नागरिक बन,
हर जगह उत्तरदायित्वो का कर वहन,
छोड़ गई इस समाज के लिए एक प्रश्न-
क्या नारी मुक्ति नहीं एक और बहाना करने का दोहरा शोषण?

1 comment:

Satya said...

You have a creative writing ability. I do not know of many people with these abilities. Do you have a formal training?
May be you should read "Ramdhari singh Dinkar" and "Surya Kant Tripathi Nirala".
These are thought provoking poems.
Did you really write them 10 years back?


- Satya