Sunday, October 24, 1999

मन भर आता है

जब तक दूसरों पर दया कर सकती हूँ
तब तक मैं 'कवि' होती हूँ।
जब दया का पात्र बना ख़ुद को पाती हूँ मैं,
तो अंदर का कवि मर जाता है।

याद है ख़ुद ही मैंने लिखा था कभी
ऐसा होने पर प्रलय समीप होती है।
ना जाने प्रलय आएगी भी या नहीं,
पर भीतर का इंसान डर जाता है।

हाँ, यह वह क्षण है जब कल्पनाएँ
अपना अस्तित्व खोने लगती हैं
और मन, मस्तिष्क, सम्पूर्ण व्यक्तित्व
यथार्थ के तथ्यों से भर जाता है।

उपमाएँ नहीं सूझती, उत्प्रेक्षाएँ सरदर्द लगती हैं,
भाव और भाषा की सूक्ष्मता गायब सी होने लगती है,
यह वह क्षण है जब मनोरम आकाशा की सैर करता मन,
यथार्थ की तपी ज़मीन पर उतर कर जल जाता है।

नहीं जानती कि यह विकास है या विनाश,
न जाने सद्बुद्धि आ रही है या सरस्वती छिन रही है,
पर अतीत की सत्य-शिव-सुन्दर की कल्पना
याद आज कर मन भर आता है।