Tuesday, November 30, 1999

वो कौन है?

जीवन के अकेले मोड़ों पर,
सुख और दुःख के जोड़ों पर,
जिसे याद करती हूँ -
वो कौन है?

अनचाहे जब कुछ छिन जाता है,
अनपेक्षित जब कुछ मिल जाता है,
तब जिसका अस्तित्व महसूस करती हूँ -
वो कौन है?

किसी की बात जब चुभ जाती है,
कोई ग्लानि भीतर तक भर जाती है,
तब जिसका नाम जपती हूँ -
वो कौन है?

जब अंदर से टूट जाती हूँ,
हीनता से इपनी घुट जाती हूँ,
तब जिसकी सोच कर आह भरती हूँ -
वो कौन है?

जब सूर्य की ग़रमी ऊर्जा देती है,
चाँदनी की शीतलती सिर छूती है,
तब जिसका धन्यवाद करती हूँ -
वो कौन है?

अँधेरे के बाद जब मिलती है रोशनी,
जीवन में नहीं लगती कोई कमी,
तब जिससे आशीः माँगती हूँ -
वो कौन है?

Sunday, October 24, 1999

मन भर आता है

जब तक दूसरों पर दया कर सकती हूँ
तब तक मैं 'कवि' होती हूँ।
जब दया का पात्र बना ख़ुद को पाती हूँ मैं,
तो अंदर का कवि मर जाता है।

याद है ख़ुद ही मैंने लिखा था कभी
ऐसा होने पर प्रलय समीप होती है।
ना जाने प्रलय आएगी भी या नहीं,
पर भीतर का इंसान डर जाता है।

हाँ, यह वह क्षण है जब कल्पनाएँ
अपना अस्तित्व खोने लगती हैं
और मन, मस्तिष्क, सम्पूर्ण व्यक्तित्व
यथार्थ के तथ्यों से भर जाता है।

उपमाएँ नहीं सूझती, उत्प्रेक्षाएँ सरदर्द लगती हैं,
भाव और भाषा की सूक्ष्मता गायब सी होने लगती है,
यह वह क्षण है जब मनोरम आकाशा की सैर करता मन,
यथार्थ की तपी ज़मीन पर उतर कर जल जाता है।

नहीं जानती कि यह विकास है या विनाश,
न जाने सद्बुद्धि आ रही है या सरस्वती छिन रही है,
पर अतीत की सत्य-शिव-सुन्दर की कल्पना
याद आज कर मन भर आता है।

Friday, April 23, 1999

ख़ुद को ही जड़ बनाती

अगर वापस बुला सकती मैं
तो अपने बचपन को बुलाती,
अगर टोक कर रोक सकती मैं
तो भागते हुए समय को रोकती।

अगर ला सकती कुछ धरती पर
तो असीम-अनन्त आकाश को लाती,
अगर कुछ पा सकती मैं
तो आकाश के तारों को पाती।

अगर उजाला कर सकती मैं
तो सूरज को ही उतारती,
अगर शीतलता पा सकती मैं
तो चाँद की चाँदनी बटोरती।

लेकिन मैं जानती हूँ
कि मैं एक इंसान हूँ।
मेरी अक्षमता ही मेरा जीवन है,
पर खोज में बढ़ते जाना ही मेरा काम है।

ना जाने कब से चल रही हूँ,
ना जाने कब तक चलती रहूँगी।
नहीं जानती,
क्योंकि अगर जड़ किसी को बना पाती मैं
तो ख़ुद को ही जड़ बनाती।


Friday, March 19, 1999

क्योंकि मैं एक इंसान हूँ

अच्छा लगता है मुझे देखना
नए या अधखिले फूलों को।
अच्छा लगता है मुझे झूलना
सावन के झूलों को।

क्योंकि मैं एक प्राणि हूँ।

अच्छा लगता है मुझे निहारना
खुले, नीले आकाश को।
अच्छा लगता है सुनना पर्वतों से
टकरा कर लौटने वाली आवाज़ को।

क्योंकि मैं एक प्राणि हूँ।

अच्छा लगता है देखना यों ही
किसी भी चीज़ को एकटक।
अच्छा लगता है शांति से एकांत में
बिना कुछ किए बैठना देर तक।

क्योंकि मैं एक प्राणि हूँ।

अच्छी लगती मुझे बर्फ की
सौम्य, उज्ज्वल श्वेतिमा।
इच्छा होती है कि जाऊँ क्षितिज तक
जिसकी नहीं है कोई सीमा।

क्योंकि मैं एक प्राणि हूँ।

लेकिन माफ़ करना मुझे तू सौंदर्य!
माफ़ करना मुझे तू शांति!
समय बहुत दुर्लभ है मेरे लिए
दुर्लभ है मेरे लिए एकांति।

कर्तव्य मेरा मुझे पुकार रहा है,
अनदेखी उसकी मैं कर नहीं सकती।
उसके नियत कर्तव्य पूर्ण किए बिना
जीना तो दूर मैं मर नहीं सकती।

क्योंकि मैं एक इंसान हूँ।