Monday, July 26, 2004

एक बार फिर

एक बार फिर,
इन जंज़ीरों को तोड़ने को जी चाहता है,
"अपने पर फैला", ये मेरा दिल कहता है।

एक बार फिर,
वो बचकानी कल्पना शांति पाने की
यथार्थवादिता को हटा पास लाने लगी।

एक बार फिर,
मेरे लिए सिर्फ साँसे लेना महत्वपूर्ण नहीं है,
लगता है जब तक न जिओ, जीवन पूर्ण नहीं है।

एक बार फिर,
इस कृत्रिमता, भाग-दौड़ से मुँह मोड़ना चाहती हूँ,
व्यावहारिकता का बंधन ख़ुद पर से तोड़ना चाहती हूँ।

एक बार फिर,
सफलता नहीं उगते सूर्य की गर्मी महसूस करना चाहती हूँ,
गर्वित नहीं जीवन से बल्कि खुश रहना चाहती हूँ।

एक बार फिर,
'विकास' के नाम की अंधी दौड़ को दुत्कारना चाहती हूँ,
इसमें फँस चुकी हूँ, पर इससे छुटकारा चाहती हूँ।

एक बार फिर,
वर्षों पहले की उस कल्पना,
जिसे मान लिया था अब बचपना,
को फिर से जीवित देखना चाहती हूँ।

एक बार फिर।

Friday, July 23, 2004

पहचान की तलाश

एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

कुछ पता नहीं कि क्या चाहती हूँ,
ये जगह बेगानी सी है ये जानती हूँ।
पर जो कुछ भी हो रहा है मेरे चारो ओर
उससे भी बेजार नहीं रह सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

मुझे सारी दुनिया नहीं जीतनी,
कोई चीज़ नहीं चाहिए कीमती।
जो छूटा है वो थका चुका था, पर जो सामने है
उसको भी स्वीकार नहीं कर सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

भीतर की हो या हो बाहर की,
डर हो या अपेक्षा एक आहट की,
कुछ कमी है मेरे जीवन में - इस तर्क से
कुछ भी कर आज मैं तकरार नहीं कर सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।


Tuesday, July 20, 2004

अतीत का भूत

मैं समय, काल और परिस्थिति का गुलाम हूँ,
बदलते समय की मार के भोक्ता का दूसरा नाम हूँ।

मैं अतीत से सीखने की कोशिश करता हूँ,
वर्तमान के अनुसार भी ख़ुद को बदलता हूँ,
क्योंकि अतीत हमेशा सही नहीं होता,
और सही क्या है - इसका जवाब कहीं नहीं होता।

मैं निर्णय लेता हूँ, उनपर विश्वास करता हूँ,
उनसे डिगना कमज़ोरी न हो, इससे डरता हूँ,
वर्तमान में मेरा विश्वास, मेरे निर्णय सही होते हैं,
पर जब वर्तमान अतीत बन जाता है तो वे महत्व खोते हैं।

अतीत के अंधे विश्वास और भविष्य की अंधी दौड़
के बीच मैं ख़ुद को फँसा सा पाता हूँ।
एक तो पता नहीं होता है कि अब क्या सही हो,
फिर वर्षों की आदत से बदलाव से डर जाता हूँ।

खुद को मना लेता हूँ कि जो है वो सही है,
दुनिया को चिल्ला कर बताता हूँ कि कुछ बेहतर नहीं है।
अतीत से लिपटा हुआ, अतीत को ढोता हुआ
कारण बनाता रहता हूँ क्यों उससे अच्छा कुछ नहीं है।

वर्तमान के अनुसार बदलने की अब मुझमें हिम्मत नहीं होती,
जो थी कभी अपेक्षा ख़ुद से, कहीं पड़ी रहती है सोती,
जब तक कोई और वर्तमान का पारखी नहीं आता,
अतीत का भूत मुझे अंदर-ही-अंदर खाता जाता।

मैं कौन हूँ?
मैं कुछ भी हो सकता हूँ -
एक मनुष्य,
एक समाज,
एक नया विचार,
एक राष्ट्र।

हम सबका एक अतीत और एक वर्तमान होता है,
और भविष्य की आशंकाओं के बीच हमें सच खोजना होता है।

Wednesday, July 14, 2004

बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

ज़िन्दग़ी बदल ज़रूर गई है,
पर नयेपन का कोई शुरूर नहीं है,
कुछ नया सुनने-सुनाने को दिखा नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

कुछ पुरानी चीज़ें दोहराई सी लग रही हैं,
पर यादों को ताजा न कर, उनका अपमान सा कर रही हैं,
जैसे हुआ था तब, वैसे उनसे कुछ सीखा नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

नई जगह, नए चेहरे, नए नियम, नया शहर,
लोगों ने कहा अलग से होते हैं यहाँ चारों प्रहर,
अतीत से ऊब गई थी, फिर भी मन मेरा यहाँ रीता नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

एक से उद्देश्य, पाने के एक से तरीके,
देखता नहीं कोई यहाँ अलग-सा जी के,
विभिन्नताओं का रस यहाँ कोई पीता नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।