एक बार फिर
एक बार फिर,
इन जंज़ीरों को तोड़ने को जी चाहता है,
"अपने पर फैला", ये मेरा दिल कहता है।
एक बार फिर,
वो बचकानी कल्पना शांति पाने की
यथार्थवादिता को हटा पास लाने लगी।
एक बार फिर,
मेरे लिए सिर्फ साँसे लेना महत्वपूर्ण नहीं है,
लगता है जब तक न जिओ, जीवन पूर्ण नहीं है।
एक बार फिर,
इस कृत्रिमता, भाग-दौड़ से मुँह मोड़ना चाहती हूँ,
व्यावहारिकता का बंधन ख़ुद पर से तोड़ना चाहती हूँ।
एक बार फिर,
सफलता नहीं उगते सूर्य की गर्मी महसूस करना चाहती हूँ,
गर्वित नहीं जीवन से बल्कि खुश रहना चाहती हूँ।
एक बार फिर,
'विकास' के नाम की अंधी दौड़ को दुत्कारना चाहती हूँ,
इसमें फँस चुकी हूँ, पर इससे छुटकारा चाहती हूँ।
एक बार फिर,
वर्षों पहले की उस कल्पना,
जिसे मान लिया था अब बचपना,
को फिर से जीवित देखना चाहती हूँ।
एक बार फिर।
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