Saturday, June 15, 1996

समाज का पोस्टमार्टम

मैं एक डाक्टर के वेश में,
जुटी हुई थी एक गंभीर केस में,
एक रोगी समाज नाम था जिसका,
जाने उसे रोगी बनाने का काम था किसका?
एक साथ कई बीमारियों से ग्रस्त था,
अपनी दयनीय हालत से वह त्रस्त था,
पर यह क्या! वह तो मर चुका था,
यमदूत मुझसे पहले ही अपना काम कर चुका था,
पोस्टमार्टम से पता चला, कई बीमारियाँ थीं उसे,
वह 'लावारिस' लाश सौंपती भला मैं किसे?
उसकी त्वचा का रोग था भ्रष्टाचार,
दिमाग़ ख़ुद से निकाल चुका था शिष्टाचार,
हिंसा, स्वार्थ और दूसरों के खून से भर,
फट चुका था उसका ब्रेन-ट्यूमर।
दानव का रक्त भरने से उसे हो गया था ब्लड कैंसर,
परोपकार रूपी हृदय के खत्म होने से वह गया था मर।
उसकी ज़बान में भी था रोग,
जो त्याग छोड़ चाहती थी सिर्फ़ भोग।
पैर नहीं टिक सकते थे ज़मीन पर,
उन्हें बीमारी थी चलने की खून पर।
हाथों की बीमारी, वे काम न कर सकते थे
बस काम तमाम कर सकते थे।
उसकी सिरदर्द थी संस्कृति,
पेट में दर्द का कारण थी प्रकृति।
अनास्था का अपेंडिक्स उसे शूल सा चुभता था,
अपनी दशा से वह मन-ही-मन कुढ़ता था,
फिर भी बीमारियों के पथ से नहीं मुड़ता था,
बंदूकों पर हो सवार क्षय रोग की उड़ान भरता था।
ऊपर-ऊपर मीठी बोलने से उसे हुई थी शुगर की बीमारी,
उसकी कुटिलता रूपी बीमारी के आगे ईश्वर की शक्ति भी हारी,
ब्रेन कैंसर ने भी उसका पीछा न छोड़ा था,
आख़िर ख़ुद उसने ही तो ख़ुद को उस ओर मोड़ा था।

इस दास्तान को सिर्फ कविता समझ कर भूल न जाना,
ख़ुद को ऐसी राह पर कहीं से भटक-भूल न लाना,
वर्ना तुम्हारे पोषक समाज का हश्र यही होगा,
उस पेड़ की शाख होने का कष्ट तुम्हें भी होगा।

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