बचपन कैसे बीत जाता है
जब दीवाली के पटाखों में
शोर सुनाई देता है,
उनसे उठने वाले धुएँ में
प्रदूषण नज़र आता है,
जब जलती फुलझड़ियों में
जलता पैसा दिखने लगता है,
जब थोड़ी खुशियाँ मनाने में
समय नष्ट होने लगता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।
जब आँखों की भोली उत्सुकता
संदेह में बदल जाती है,
जब छोटी-छोटी जिज्ञासाएँ
प्रश्नों के सागर बन जाती हैं,
जब घर-आँगन के बाहर भी
एक दुनिया नज़र आती है,
जब सामाजिकता और परिस्थितियाँ
ज़िम्मेदारियाँ नई लाती हैं,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।
जब बमों व बंदूकों के स्वर
साधारण पटाखे नज़र आते हैं,
जब चंदामामा प्यारे न रहकर
पत्थर को ढेर बन जाते हैं,
जब सूरज नहीं चलता आकाश में,
पृथ्वी घूमने लगती है,
जब स्थिरता और गति जीवन की
सापेक्षिक लगने लगती है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।
जब आसमान सपना हो जाता,
धरती तक दुर्लभ लगती है,
मेहनत का मतलब समझ में आता है,
कठिनाइयाँ जीवन का सच बनने लगती हैं,
जब माँ का आँचल, पिता का हाथ भी
सुरक्षा में असमर्थ हो जाता है,
जब जीवन रूपी यह संघर्ष
मानसिक परिपक्वता लाता है,
तब समझ में आता है
बचपन कैसे बीत जाता है।
1 comment:
Jaya,
This is Gaurav Singhal, one of your seniors at IITK, I hope u would recall. Once u recited lines from this poem in one of the Hindi Sahitya Sabha's meetings. I liked those lines so much that even after years could recall the impact they had.
I and my wife, whom I at a few times told about a person at IITK I felt one of the most talented persons I have seen, wish you the very best for your life ahead.
-Gaurav & Meenakshi,
http://gauravsinghal2.blogspot.com/
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