Friday, June 12, 1998

मैं कानून हूँ

मैं कानून हूँ -
बहुत लंबा सफ़र
कर चुका हूँ तय।
मनुस्मृति से आज की
आचार-संहिताओं तक।
बारह तख़्तियों से
नेपोलियन कोड और
लोकतंत्रात्मक स्वरूप तक।

उपयोग, अर्थ, आवश्यकता
सभी बदलती रही हैं मेरी।

मैं जानता हूँ -
अपनी सच्चाई,
अपनी मजबूती,
अपनी शक्ति
और इन सबके साथ
अपना अंधापन
अपनी असहाय स्थिति।
क्योंकि
ऊपर वाले ने नहीं की
इतनी कृपा मुझपर
कि एक मूर्त स्वरूप दे देता
मुझे,
ताकि मैं देख सकता
ज़ुर्म और बेग़ुनाही का अंतर।
ताकि सुन सकता मैं
पीड़ितों की मर्मांतक चीखें।
ताकि अपने लम्बे हाथों को
पहुँचा सकता सच्चे कसूरवार तक।
ताकि हर आँख के आँसू
अपने ही हाथों से पोछ सकता मैं।
ताकि हर न्याय प्राप्ति के इच्छुक को
दे सकता मैं इच्छित भेंट।
ताकि अपने शरीर पर
बड़े-बड़े दंश झेलकर भी
रोक सकता मानवता के वृक्ष में
ज़हर घुलने से।
ताकि हर ग़ुनाह का चश्मदीद गवाह बनकर
आता मैं कटघरे में
और तुम
मानते मेरी बात, गीता की कसम खाए बिना भी
क्योंकि उसकी झूठी कसम भी तो नई बात नहीं।

लेकिन नहीं किया ईश्वर ने ऐसा
तुम पर छोड़ दिया
कि मुझे स्वरूप दो चाहे जैसा।
एक मूर्ति के रूप में बैठा दिया
तुमने मुझे
उसपर भी आँखों में पट्टी बाँधकर
एक तराजू हाथों में डालकर।

नहीं देख सकता मैं
कि जिसने तराजू डाला है हाथों में
उसके ही हाथ तो खूनी नहीं?

नहीं देख सकता मैं
कि तराजू के पलड़े में मिट्टी चढ़ी है या सोना,
और उसे बराबर किया है
लाल रंग ने या किसी के खून ने।

और इसलिए
मेरे हिस्से पड़ती हैं
गरीबों की दुत्कार व बददुआएँ
और धनवानों के मज़ाक और कुटिल ठहाके।

क्या करूँ मैं?
तुम्हें सुना भी तो नहीं सकता
अपनी व्यथा-कथा।

क्या तुम सुन रहे हो
मेरी भावनाओं की आवाज़?
जो अमूर्त हैं और सबकुछ समझती हैं
पर व्यक्त करने के लिए वाणी
या मौन अभिव्यक्ति के लिए
खुली आँखें नहीं हैं।

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