Monday, December 21, 1998

विरोधाभास

क्यों होता है इतना विरोधाभास
मेरी ही सोच में कल और आज?
तुम पूछते हो मुझसे अक्सर,
गर्वित होते हो प्रश्न अनुत्तरित पूछकर।

तुम मानो या ना मानो
मनवा तो नहीं सकती मैं।
पर यह सच है कि मैं आदमी हूँ, पत्थर नहीं,
इसलिए अक्सर बदलती हूँ मैं।

ज्ञानेंद्रियाँ अभी जीवित हैं मेरी,
नित नए-नए अनुभव कराती हैं,
मेरी समझ और मानसिकता में
इस तरह बदलाव लाती हैं।

नई चीज़ें गर अच्छी लगें
तो स्वीकारना मेरी आदत है,
शाश्वत सत्य कुछ है नहीं,
आज के सत्य की पूजा मेरी इबादत है।

जिस दिन सोच का यह लचीलापन
इंसानी दिमाग़ से ख़त्म हो जाएगा,
उस दिन के बाद न तो नए सिद्धांत जनमेंगे
ना ही कोई नया आविष्कार हो पाएगा।

उस दिन मानव सभ्यता के इंतकाल की
खुली और घोषित शुरुआत हो जाएगी।
विकास और उत्थान से जुड़ी उसकी क़िस्मत
उसी दिन से बर्बाद हो जाएगी।

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