सपने और दिमाग़
"मुझे ये ज़मीं नहीं
वो आकाश चाहिए।
ये साधारण पत्थर नहीं
वो चाँद चाहिए।"
"ये आग नहीं चाहिए
मुझे सूरज को पकड़ना है।
नदी-झरनों का है क्या करना
मुझे आकाशगंगा में उतरना है।"
"ये पेड़, या फल-फूल नहीं
वे सारे तारे चाहिए।
पत्थर की मूर्ति नहीं, हैं ग़र तो
भगवान खुद ही हमारे चाहिए।"
-- मेरे सपनों ने कहा।
"मूर्ख ग़र सोचता है कि
क्षमताएँ हैं तेरे अंदर,
तो बना देता ना क्यों
धरती को ही तारों का घर।"
"आँखों से पर्दा हटा तो ज़रा तू,
चाँद भी पत्थर ही है मान जाएगा।
आकाशगंगा काल्पनिक है मानता न क्यों,
इन झरनों का आनंद कहीं और न पाएगा।"
"तारों की चमक अंधा बना सकती है,
फूलों की कोमलता का सकून और कहाँय़
ये आग जिसने पकाई थी पहली रोटी,
सूरज की प्रचंडता में है मान वो कहाँ?"
"ढूँढ़ना चाहता है भगवान को ग़र तू
झाँक अपने अंदर कुछ नहीं वो विश्वास है तेरा।
देख उनकी ओर जिनके सपने नहीं बचे,
आँखों में उनकी मिल जाएगा भगवान वो तेरा।"
-- मेरे दिमाग़ ने कहा।
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