Friday, March 20, 1998

ऐ तारों!

ऐ तारों! देखकर तुम्हें आकाश में
मुझे कुछ-कुछ अहसास होता है,
कुछ है, इनसे अलग, अलग इस जहाँ से
ऐसा कुछ-कुछ विश्वास होता है।

कौन हो तुम?
संतुष्ट कर नहीं पाया मुझे विज्ञान।
सोचती हूँ जब तुम्हारे अस्तित्व की बात,
लगता है दुनिया भी है अज्ञान।

कौन हो तुम?
क्या आदिम मानव की आविष्कृत
प्रकाश की पहली ज्योति?
या किसी भूखे द्वारा ढूँढ़ी गई
पहली-पहली रोटी?

या मानव के मुँह से निकली
पहली वो बोली?
जिसने भरी पहली बार
सभ्यता की झोली?

या किसी के गले से निकला
पहला-पहला गीत?
जो तुम्हारी ही तरह बन गया
सदा के लिए मानव का मीत?

या उस अव्यक्त सत्ता का
कोई मूर्त प्रतीक
जिसके आगे कोई भी
पा न सका जीत?

या कुछ और ही
मेरी कल्पनाओं से भी परे
जिसको नाम देने के लिए भटकती हूँ
आशाओं की झोली भरे?

या कुछ और जो बाहर है
इस कलम की भी पहुँच से.
वो जो मैं पूछ नहीं पा रही
यहाँ तक कि ख़ुद से?

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