Tuesday, September 17, 1996

काग़ज़ की जीवन कहानी

बाँस की पेड़ जिसमें, छिपा है भविष्य के काग़ज़ का टुकड़ा,
दिखते हैं कुछ मज़दूर और नज़र आता है एक मालिक-सा मुखड़ा।
फिर दनादन चलती है कुल्ड़ियाँ,
कुचली चली जाती हैं पास की झाड़ियाँ।
फिर वे बाँस ले लेते हैं लुग्दी का रूप,
हरे-हरे से प्यारे बाँस लगने लगते हैं ब़ड़े कुरूप।
फिर बन जाता है वो काग़ज़,
लेकर थोड़ा-सा श्रम, थोड़ी-सी लागत।
फिर वह एक मोटी-सी कॉपी का भाग बन जाता है,
एक बड़ी ऑर्केस्ट्रा का छोटा-सा साज बन जाता है।

फिर दुकान के एक कोने में उसपर धूल जम रही थी,
यदि उसमें प्राण मानें तो उसकी साँस घुट रही थी।

फिर एक दिन एक विद्यार्थी ने उसकी उपयोग किया,
कुछ लिखकर, कुछ काटकर, कुछ करने में प्रयोग किया।

फिर एक दिन रह गया वह एक रद्दी काग़ज़,
कूड़ेदान में होने भर की रह गई उसकी हैसियत।

पर क़िस्मत से उसे एक दुकानदार ने ले लिया,
एक बच्चे के खरीदने पर कुछ बिस्किट उसमें दे दिया।

बच्चे से छूटने पर कर्मचारी के झाड़ू का हो शिकार,
चल दिया म्यूनिसिपल्टी की गाड़ी में होकर सवार।

कहीं किसी गढ्ढे में सड़कर खाद बन गया,
जिसे किसी माली ने अपने बाँस के पेड़ में डाल दिया,
और फिर खत्म हो गई उसकी जीवन कहानी,
बाँस के उस पेड़ के रूप में रह गई उसकी निशानी।

उसे किसी माली ने पोसा,
उसे किसी फैक्ट्री ने खोजा,
किसी विद्यार्थी ने उसे पूजा।
जाने किसी नादान को क्या सूझा?
उसे बना डाला कूड़ा,
हो गया उसकी जीवन पूरा।

किस्मत ने जीवन के कितने रंग दिखाए,
सहता गया वह काग़ज़ चुपचाप,
जिसने उसे जीवन झेलने की
शक्ति दे दी अपने आप।

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