बचपन
उन्हें आती है मधुर याद बचपन की,
स्वतंत्र, उन्मुक्त, भोले-भाले, स्वच्छंद जीवन की,
पर हमारे बचपन की कहानियाँ,
बस हैं मोटी पुस्तकों की कुछ निशानियाँ।
आज के बचपन में शरारतों की फुर्सत नहीं है,
क्योंकि कभी भी बच्चों को किताबें देती रुख़्सत नहीं हैं,
नंबर पाने की लगी ऐसी होड़ है,
मानो विद्याध्यन नहीं कोई खूनी दौड़ है।
कैसे रह सकता है यह बचपन भोला-भाला,
जब उन्हें नज़र आए सिर्फ घोटाला,
यह बचपन खुशियों का पैग़ाम नहीं, तनावों की दास्तान बना हुआ है,
इस बोझ को उतारने से पहले ही यह डरा-सहमा हुआ है।
कैसे याद आ सकती हैं उन्हें नानी-दादी की कहानियाँ,
जब चारों ओर मिलें सिर्फ बमों-बन्दूकों की निशानियाँ,
पहले भी होती थीं और आज भी हैं कहानियाँ,
पर आज इनमें परोपकारियों की महानता नहीं है, अपराधों की हैं निशानियाँ।
हमारा समाज हमें दे रहा है ये कैसा बचपन?
स्वतंत्र, स्वच्छंद नहीं, बल्कि एक डरा सहमा जीवन।
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