Tuesday, February 27, 1996

पोस्टमार्टम

उनके लिए कुछ नहीं था उस फूल में सिवाय पुंकेसर, स्त्रीकेसर व कुछ कोशिकाओं के,
पर, मेरे लिए उनके अंदर छिपे थे भाव उन माताओं के,
जो अपने बच्चे से बिछड़ने पर बिलखती हैं, रोती हैं,
और उन्हीं की याद में "चैन की नींद" सोती हैं,
बड़े प्रेम से ढूँढ़ा थे मैंने उसे उस वन में,
और उस फूल के बड़े पेड़ की कल्पना सजाई थी अपने मन में,
उसे देखकर वो भी चिल्लाए, "अरे! मिल गया।"
मैं चकित थी कि आख़िर हुआ क्या।
हाथ से झपटा ऐसे कि फूल मुझे मिला टूटा हुआ,
उन्हें किन्तु दुःख न हुआ, मानो जीत गए हों कोई जुआ।
उसी फूल की ज़रूरत थी उन्हें रिसर्च करने को,
चीड़-फाड़ करने को और अपने सफ़ेद कागज़ भरने को।
अपनी इच्छा पूरी की और उसे चीड़-फाड़ दिया,
उस ख़ूबसूरत फूल का पोस्टमार्टम कर मुझे लौटा दिया।
उन्हें शायद मिल गया था, हाँ, मिल गया था, एक नया हथियार,
और बस इसलिए देखती रही मैं कर न सकी गुस्से का प्रहार।
लोग आते था और उन्हें बधाइयाँ दे कर चले जाते थे,
पर वे लोग, हाँ, विद्वान् लोग, मेरे मन की थाह नहीं ले पाते थे।
वो फूल मेरे सामने सुना रहा था अपनी व्यथा-कथा,
और उसे प्रकट कर मन हलका करने के लिए मैंने लिखी है यह कविता।

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