डर
जब देखने को मिलते हैं, एक ही चेहरे के दो विपरीत पहलू
समझ में नहीं आता मैं उनको कैसे सह लूँ?
आखिर कैसे ये लोग एक साथ नदी के दो किनारों का पानी पीते हैं,
ये मेरी समझ से बाहर है कि कैसे ये दोहरी ज़िन्दग़ी जीते हैं।
सच, अब तो डर लगता है, इन सभ्य लोगों के समाज से,
बिना कुछ बोले, चुपके-चुपके पीछे से झपटते इस बाज से,
हर किसी के अंदर छिपे किसी अनजाने-अनबूझे राज़ से,
सबों द्वारा बजाए जाने वाले इस ख़ूबसूरत, रहस्यमय, क़ातिलाना साज से,
हर मित्र पर किए गए अविश्वास से,
हर शत्रु से लगाई गई आस से,
हर आशा के आगे लगे "काश!" से,
एक-दूसरे के खून की लगी इस प्यास से,
कागज़ के टुकड़ों के लिए, जान के बैरी भाइयों से,
इस "उन्नत" समाज में व्यक्ति के जीवन पथ की खाइयों से,
तथाकथित सत्यवादी लोगों की बुराइयों से,
बाल के संग-संग चमड़े भी उधेड़ लेने वाले नाइयों से,
हर किसी के मुँह से निकलने वाले स्वर से,
और शायद सच बोलने पर न्यायपालक ईश्वर से।
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