दिल और दिमाग़
"चल बारिश में भींगे", दिल ने कहा।
दिमाग़ बोला, "भीगे कपड़े सुखाओगी कहाँ?"
दिल के फ़ैसलों को हमेशा दिमाग़ रोकता है,
जबकि दिल पहले से है, दिमाग़ समय के साथ हुआ।
दिल चाहता है कल्पना की ऊँची ऊँची उड़ाने भरना,
दिमाग़ चाहता है पहले रक्षा कवच बनाना।
दिल चाहता है मौज मनाना,
दिमाग़ चाहता है भविष्य बनाना।
दिल-दिमाग़ के इस संघर्ष में जब-जब दिमाग़ विजयी घोषित हुआ है,
एक नया सितारा सभ्यता का उदित हुआ है।
उस-उस समय मनुष्य ने प्रगति की है,
और अपने दुश्मनों की दुर्गति की है।
तब-तब उसके माथे पर शोहरत का टीका चमका है।
तब-तब क्रांति की कांति से वह तेजस्वी और दमका है।
लेकिन जब-जब वह दिमाग़ दिल पर हावी होता जाता है,
तब-तब मानव मानवता की पहचान खोता जाता है।
उस समय किसी कवि का उदर अपनी ही कविता को खा जाता है,
अपने गानों को कोई गायक तब ख़ुद ही भूल जाता है।
तब आदमीयत का क़त्ल होता है, इंसानियत की जाती है जान,
एकादशी आती नहीं, चैन से सोते हैं भगवान।
तब भावनाओं का रह नहीं जाता है कोई मूल्य,
और तब तब यह धरती हो जाती है नर्क तुल्य।
तब-तब भावनाओं पर की चोट से भड़कती है प्रकृति के क्रोध की चिंगारी,
तब उस गर्मी में पिघल जाती है पृथ्वी पर की बर्फ सारी।
तब आता है प्रलय का काल,
करने को पृथ्वी का संहार।
फिर होता है वाराह अवतार,
करने को पृथ्वी का उद्धार,
कोई एक मनु बचता है,
विश्व एक नया रचता है।
फिर दिलयुक्त, दिमाग़हीन मानव आता है,
कुछ दिन शांति के गीत गाता है,
और फिर जब वह दिमाग़ पाता है,
यही इतिहास खुद को दोहराता है।
2 comments:
बहुत सुन्दर कविता है। रचना के लिए बधाई।
-- दीपक
Kavita bahot achchi lagi;
aaj aise hi browsing karte waqt aapka blog dekha. mujhe bhi jaanana hai ke aapne Hindi script kaise likha. Main Maharastrian hoon, aur Marathi blog likhna chahti hoon.
send me a mail at nutan_bashte@yahoo.co.in for the above information.
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