प्रतिबंधित
अक्सर मेरी उठी हुई कलम रुक जाती है,
पुनः उसे चलाने में मेरी शक्ति चुक जाती है।
सामाजिक बंधन रोक लेते हैं मेरी कलम को,
वे ही बंधन जो भंग करते हैं दिल के अमन को,
जिनके ख़िलाफ़ मैं हूँ लिखना चाहती,
पर ये कलम उन्हीं के डर से रुक जाती।
जब तक मैं गुमनाम थी,
समाज के लिए अनजान थी,
तब तक मेरी कलम आज़ाद थी,
लिखने में करती ना कोई विवाद थी।
और आज इसे जकड़ चुकी हैं सामाजिक मान्यताएँ,
और यह डरती है कि लिखते हुए कुछ अधिक न लिख जाए।
कलम समाज के अनुसार चलती है, पर दिमाग़ उतना ही नहीं सोचता,
कलम बँधने के लिए झुक जाती है, पर दिल को यह नहीं रुचता।
फिर दिल-दिमाग के गठजोड़ का मुक़ाबला होता है मेरे अंदर के भय से,
सामान्यतः युद्ध का निर्णय होता आया है पराजय और विजय से,
इस युद्ध का हश्र क्या होता है, ये तो मैं नहीं जानती,
पर भय हारता है, इतना तो मैं हूँ मानती,
क्योंकि जगने पर मिलता है मुझे कलम पर एक लेबल,
सारे प्रश्नों का जवाब देने में समर्थ होता है वह केवल,
'प्रतिबंधित'
क्योंकि इसी में है सभी का हित।
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