वो बस
वो बस,
कितनों की आशाओं की पूरक थी,
आशाएँ पूरी करने की एक मात्र सूरत थी।
वो बस,
कितनी ही खुशियों का उल्लास थी,
वो खुशियाँ बन चुकी एक लाश थीं।
वो बस,
कितनी ही माओं की आस थी,
बस पहुँचने की लगी एक प्यास थी।
वो बस,
कितने ही सपनों का मंदिर थी,
पर सपनों के खून की चीख सुनने में बधिर थी।
वो बस,
कितनी ही दुल्हनों का स्वप्न थी,
क्या पता उन्हें स्वप्नों की होने वाली मृत्यु की रस्म थी।
वो बस,
कितने ही प्रतीक्षारत भाइयों का अरमान थी,
जिनकी बहनें ले कर आने वाली राखियों का फरमान थीं।
वो बस,
कितनी ही दादियों का पोते का मुँह देखने की इच्छा थी,
इतना ही नहीं, वो बस हमें भी दे चुकी एक शिक्षा थी।
वो बस,
कितनी ही अभिलषाओं की कब्र थी,
शायद किसी के बच जाने की भी सब्र थी।
वो बस,
दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी थी,
क्योंकि आदमी के बोझ से त्रस्त हो चुकी थी।
वो बस,
कल अपने विकृत रूप के साथ अखबार में आने वाली थी,
परसों वो ख़बर पुरानी हो जाएगी, पर ज़रूर सोचूँगी दिल के किसी कोने में जगह खाली थी।
वो बस,
अपने में समेटे थी कितने ही घरों की व्यथा,
और उस व्यथा से अभिभूत हो मैंने लिखी है ये कविता।
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