हमारी भावनाएँ
हमारी भावनाएँ
बेकद्र-सी पड़ी हुई हैं,
दुनिया अपनी जिद पर अड़ी हुई है।
हमारी भावनाएँ
भला कौन उसे समझेगा,
हमारे मन की गुत्थम-गुत्थी को कौन बूझेगा?
हमारी भावनाएँ
क्या उनसे जुड़ा है सम्पत्ति का अधिकार,
ऐसा निकृष्ट सोच से मन कर उठा हाहाकार।
हमारी भावनाएँ
उन्हें कुंठित करने का काम किसने किया है,
दब्बू व्यक्तित्व का ये बोझ लाद किसने दिया है?
हमारी भावनाएँ
ये ही बना दी गई है कि अगले कुछ वर्षों में,
पैसे, गहने, मेहनत के खर्चों में,
सारे पुराने रिश्ते टूट जाएँगे,
सुनहले सपने हमसे रूठ जाएँगे।
हमारी भावनाएँ
ये सुन उनमें भर गया था हर्ष.
मनाया गया था कुछ समय पहले बालिका-वर्ष.
पर ये हर्ष अब विषाद हो चुका था,
दु:ख, पतन अवनति की गाद हो चुका था,
जिसमें हमारी भावनाएँ और हम फँस चुके हैं,
क्योंकि समाज-निर्माता भेदहीन समाज रच चुके हैं।
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