मेरा भारत महान् है
वह थी एक बूढ़ी असहाय सी औरत,
परिस्थितियों की मार से हो चुकी बेबस,
वह एक छोटे से क्षेत्र में घंटों से बैठी थी,
उसकी किस्मत हर तरह से उससे रूठी थी।
दो-ढाई किलो रद्दी से भरा थी उसका बोरा,
मोतियाबिंद उतरे आँखों में बंद सपने थे उसका घोड़ा,
उस पर चढ़ कर आशाओं के आकाश में सैर कर रही थी,
पर, तुरत, यथार्थ के धरातल पर उतर कर आह भर रही थी।
तब तक शायद उसे भूख लग आई थी,
किसी तरह टटोल कर बोरे से छोटी-सी थैली पाई थी,
अपने काँपते हाथों से उसे खाना निकालते देख मैं रह गई थी दंग,
उसके भोजन को निहार मेरी हृदय गति होने लगी थी मंद,
चाह कर भी मुँह नहीं फेरा क्योंकि बाजू में एक सहेली खड़ी थी,
नज़रों में उसकी दयालु होने के कारण मैंने एक नाटकीय आह भरी थी,
वह भी कम नहीं थी, उसे अपने पोस्टर की नायिका बना रही थी,
क्योंकि उस स्थान को भरने हेतु पात्र की खोज तब तक की जा रही थी।
और मेरे और आपके लिए ये व्यथापूर्ण गाथा,
जिसमें सिमटकर रह गई वह है बस ये छोटी-सी कविता।
क्या इस समस्या का यही समाधान है?
और हम चिल्लाते हैं मेरा भारत महान् है।
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