Friday, March 29, 1996

मेरा वो परिवार महान् था

जाने कैसे जीवन बीतता जाता है और यादें धूमिल पड़ती जाती हैं,
पर, कभी मुश्किलों में सहारा खोजते वक्त वो यादें बहुत आती हैं।
आज जब मैं अकेली रहती हूँ,
तो अपने उस जीवन, उस परिवार को याद करती हूँ,
जहाँ शायद कोई मेरी सगा अपना न था,
पर उनका स्नेह, वो प्यार कोई सपना न था।

वे बेगाने इन अपनों से अच्छे थे,
खून का रिश्ता न हो, पर मन के रिश्ते सच्चे थे,
उन रिश्तों में एक मिठास थी,
उन रिश्तों की ज़रूरत भी कुछ खास थी।

वे रिश्ते हवा-पानी की तरह महत्वपूर्ण थे,
रिश्तों की डोर से बँधे लोग अलग थे, पर एक दूसरे से मिलकर पूर्ण थे,
वे रिश्ते गंगाजल की तरह पवित्र थे,
जिसमें सभी एक दूसरे के विश्वासी मित्र थे।

उन रिश्तों में एक अनोखा बंधन था,
प्यार-मोहब्बत, दिल-ओ-दिमाग़ का संगम था।

उन रिश्तों की नींव पर हमने सुंदर मंदिर बनाया था,
जिसके भक्तों ने खुद के अंदर सागर-सा दिल पाया था,
उस अथाह दिल के अंदर सबके लिए स्थान था,
सच मैं सोचती हूँ मेरा वो परिवार महान् था।

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