Friday, December 09, 2005

वो दिन

देखा हमें बेरुखी से कई चैनल बदलते हुए
ठंढी सांस ले कर उन्होंने कहा,
"रविवार की एक फिल्म के लिए मचलने वाले,
हाय, वो सीधे दिन गए कहाँ।"

उन्हें जब देखते थे उस फिल्म से अकेले चिपके
अपने दिन याद करते थे उनके बुजुर्ग भी
वो बड़ा सा रेडियो, जिसके चारो ओर
पूरे गाँव की भीड़ लगती थी।

और उस रेडियो को भी मिली थी गालियाँ
कि कहाँ पहले लोग यों चिपके रहते थे
क्या दिन थे वो जब शामों में
सब मिलकर बस बातें करते थे।


Saturday, October 08, 2005

घाव-खुशी

घाव किसी के भरते नहीं सहलाने से कभी
उन्हें तो ढँक कर छोड़ देना ही अच्छा है।
जाता नहीं दर्द दास्ताँ सुनाने से कभी
उससे तो बस मुँह मोड़ लेना ही अच्छा है।

मरहम बहुत ढूँढ़े सदा लोगों ने मग़र
सब अच्छा करने की कोशिश के मर्ज़ का
इलाज नहीं कोई, कोई हल भी नहीं है
झगड़ा ग़र हो कही फ़र्ज़ फ़र्ज़ का।

आते हैं लोग पूछने खुश कैसे रहा जाए
कैसे बताऊँ वो ज़हीनी चीज़ नहीं है
मूँद लो आँखें ग़र कोई चीज़ तड़पाए
खुशी वही है जहाँ कि रीत यही है।

Friday, October 07, 2005

बस कलम रह गई साथ

चला गया जो भी आया था, बस कलम रह गई साथ।
किसी और का वो साया था, धुंधली-सी रह गई याद।

गीत कभी गाए थे मैंने, भूल गई हूँ सुर और ताल
लफ़्ज़ नहीं छूटे मुझसे पर, देते रहे समय को मात।

भाषाएँ सब अलग-अलग, सीखीं और फिर भूल गई,
पर जब जो भी जाना उसमें कलम चलाते रहे हाथ।

छूट गए सब लोग पुराने, और नज़ारे जान से प्यारे
जब भी पर जो भी देखा, नज़्मों मे सब लिया बाँध।


Saturday, August 06, 2005

बचपन में बताया था किसी ने

बचपन में बताया था किसी ने
कि तारे उतने पास नहीं होते
जितने दिखते हैं।
नहीं समझी थी मैं तब,
अब समझती हूँ।

बचपन में बताया था किसी ने
कि सूरज बड़ा दिखता चाँद से
फिर भी वो ज़्यादा दूर है।
नहीं समझी थी मैं तब,
अब समझती हूँ।

बचपन में बताया था किसी ने
चलती गाड़ी पर कि पेड़ नहीं
हम भाग रहे हैं।
नहीं समझी थी तब
अब समझती हूँ।

कोई पास होकर भी दूर कैसे होता है
नज़दीक दिखती चीज़ें कितनी दूर होती हैं
और हम भाग रहे होते हैं चीज़ों से
पता भी नहीं चलता
मान बैठते हैं कि क़िस्मत बुरी है
और चीजें भाग रहीं हैं हमसे।

अब समझती हूँ।

Wednesday, June 22, 2005

घर

तिनके जोड़ लोगो को
घर बनाते देखा है।
बाढ़ में बहते हुए
घर को बचाते देखा है।
गिरते हुए घर को
मजबूत कराते देखा है।
शायद कभी गुस्से में
घर को जलाते देखा है।

पर कभी गिराने के लिए
अपने ही हाथों से, किसी को
घर सजाते देखा है?

Tuesday, June 21, 2005

No Title

किसी और को सौंप दूँ तो क्या
क़िस्मत तो वो मेरी ही रहेगी।

जो लिख गई लिखने वाले के हाथों
कहानी तो वो वही कहेगी।
आँखें मूँद भी लूँ मैं तो क्या
बंद पलकों से ही बहेगी।

राज कर सकती है मुझपर
बातें मेरी क्यों सहेगी?

अजूबा लगता हो लगने दो
अँधेरा होता है चिराग तले ही।

कभी ज़िन्दग़ी को हाथ से फिसलते देखा है?

कभी ज़िन्दग़ी को हाथ से फिसलते देखा है?

कोई वज़ह नहीं कि जी न सकें,
हाथ में रखा जाम पी न सकें।
मजबूत हाथों के होते भी,
फिसलन की वजह से
कभी प्याले को हाथ से गिरते देखा है?

कभी ज़िन्दग़ी को हाथ से फिसलते देखा है?

Saturday, May 14, 2005

चलना और बदलना

पागलपन है पर पागलपन
से ही दुनिया चलती जैसे।
इंसानों के लिए इंसानियत
सौ बार देखो गिरती कैसे।

चिल्ल-पौं ये भाग दौड़,
इक दूजे पर गिरना-पड़ना।
गर्व से कहना,"हम हैं चलाते
इस दुनिया का जीना-मरना।"

सच ही है यह झूठ नहीं पर,
शायद इनसे अलग भी कुछ है।
सुख-दुख इनसे बनते, उनसे
अलग भी सुख है, अलग भी दुख है।

दुनिया चलती नहीं है उनसे
बल्कि बदली जाती है।
जो पालक विष्णु को नहीं,
संहारक शिव को लाती है।

फिर वो निर्माता को उत्साह
भरी आवाज़ लगाती है।
और मानवता को फिर सेएक
नयी राह पर लाती है।

शायद फिर से ही गिरने को,
शायद फिर से उलझ पड़ने को।
शायद फिर सेचलाने को
दुनिया और लड़ने मरने को।

Friday, May 13, 2005

ताजमहल

सदियों से मनाते आए हो
तुम यहाँ मोहब्बत का जश्न,
पर कोई तुममे से सुन ना सका
एक ख़ामोश मूक सा प्रश्न।

उपेक्षित कुछ पल इतिहास के
जो तुम्हारे सामने रखते हैं।
पर जिनकी कमज़ोर आवाज़ को
तुम्हारे कान नहीं सुन सकते हैं।

मैं मुमताज महल हूँ - हाँ वही
जिससे हर प्रेमिका दुनिया की,
ईर्ष्या रखती होगी सोचकर
ऐसी मिलें हमें खुशियाँ भी।

कहानी मेरी सुनो आज
आज सच मेरा भी जानो
कान दे दो एक बार तो
पीछे फिर मानो ना मानो।

हरम खड़ा था - दूर होकर
चहल-पहल से इस दुनिया की।
उसमें बंद हज़ारों जैसी
मैं भी थी बस एक चिड़िया सी।

बादशाह की प्यारी थी तो
ज़्यादा रातें, कुछ ज़्यादा पल।
थोड़े ज़्यादा नौकर और फिर
मरने पर यह ताजमहल।

कर दूँ मैं क़ुर्बान सैकड़ों
आलीशान महल सब ऐसे।
प्यार अगर ऐसा मिल जाए
हों जिसमें हम एक-दूजे के।

बहुत बड़े का बड़ा-सा हिस्सा
संतोष नहीं वो दे पाता है।
छोटे से का पूर्ण अधिकार
खुशियाँ जैसी दे जाता है।

जश्न मनाओ मत पत्थर के
ताजमहल पर प्यार का तुम।
हाथों में ले हाथ कुटी में
स्वागत करो बहार का तुम।

सच्चा ताजमहल वो होगा
दे दिल जिसको बनायेंगे।
वो भी उस दिन जिस दिन दोनों
मिलकर एक हो जाएँगे।

नहीं बनाते हैं कारीगर
प्यार का कभी निशानियाँ।
बस लिख सकते वो बादशाहों
की बिगड़ी हुई कहानियाँ।

Monday, March 28, 2005

ज़िन्दग़ी की खुली किताब

सोचती हूँ ख़त्म कर दूँ तुझे
ऐ ज़िन्दग़ी की खुली किताब,
आज ही, जब सब ख़ुशनुमा है
और पूरा निकला है माहताब।

दो पल मुसकरा दे कोई
तेरी एक झलक पाकर,
काम तेरा हो जाएगा
पूरा दुनिया में आकर।

कल अँधेरे हो सकते हैं
ज़िन्दग़ी में, और उसका असर
पड़ेगा तुझपर भी, अगर
टूटा कहीं वक़्त का कहर।

क्यों आँसू से धोऊँ तुझको,
क्यों छीनूँ तेरी मुसकान?
क्यों ना बंद कर दूँ तुझको
अंत आज ही तेरा मान?

किसी ने फिर उठाया तुझे
अगर कभी बरसों के बाद,
हँस देना मुसकान में उसकी
कर दम भर तू मुझको याद।

Friday, March 04, 2005

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

बड़ी-बड़ी आँखों ने जब
उनसे भी बड़ी कल्पना की थी।
छोटी-छोटी बाहें भी जब
गगन को सारे अपनाती थीं।

खो गए हैं कहीं उनके साथ
कुछ विश्वास कभी जो थे अपने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

निष्कलुष आँखों ने देखा था,
जो था उनसे संतोष न था।
पर बदला जाएगा सबकुछ
कम यों इसका जोश न था।

आज की बलिष्ठ भुजाओं में
चलना है जोश वो फिर भरने।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।

क्या कहा बचपना था वो सब?
भूल जाऊँ मैं अब वो बात?
बचपना था तो डोर दुनिया की
दे दो आज बच्चों के हाथ।

थोड़ा बचपन मैं ले आऊँ
आज फिर से अपने मन में।

खोजने हैं पुराने कुछ सपने।


Thursday, March 03, 2005

ऐसा तो नहीं हो सकता

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि आँसू, खून और विध्वंस मिलकर
कभी नहीं देते भयानक सपने तुम्हें
और तांडव नहीं करते हों दिलपर।

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि कभी सिहरता न हो तुम्हारा बदन।
कभी उलटी न आती हो घिन से,
कभी चीखता नहीं हो अपना ही मन!

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि कभी तुम्हें ऐसा लगा नहीं
कि तुमने बहुत ग़लत किया है
और इंसान तुम्हारे अंदर जगा नहीं।

नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता
कि तुमने कभी जाना ही नहीं
कि दर्द क्या होता है इंसानों का
और ग़लती को तुमने माना नहीं।

फिर कैसे तुम सत्ता के मद में
रचाते रहे हो खेल ये भयंकर?
कैसे आते रहे दुनिया में
गजनी, हिटलर या बुश बनकर?

Tuesday, February 22, 2005

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

हाथों में लेकर अपनी क़िस्मत,
सर उठाने की करूँगी हिम्मत।
और कभी ले जाए जहाँ चाहे तू मुझे,
दे पल तो अपना स्वप्न देश मैं ही चुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

बताकर स्वप्न व यथार्थ का अंतर,
बरसाती रह तू शोले मुझपर,
पर मुझे रोकना नहीं मैं दो पल
कुछ सपने अपने कहीं बुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

Monday, February 21, 2005

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

विनाश आसानी से दिख रहा था,
अस्तित्व मानवता का मिट रहा था।
पर उन लाशों और खून सनी धरती पर ही
किसी को फूल बहार के दिए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

अनजान सा पथ था, रास्ता मुश्किल था,
प्रतियोगी आगे, डर जाता ये दिल था।
पर उनपर ही आगे बढ़कर मैंने
सपनों के किरदार बड़े किए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

ऊपर उठी मैं कुछ दृश्य रह गए पीछे,
दब गई वो दुनिया एक चमकती परत के नीचे।
आज याद आया तो सोचने लगी मैं, किसने
पैबंद हटा हीरे कई आकार के दिए थे।

ज़िन्दग़ी ने कुछ सवाल खड़े किए थे।

Sunday, February 20, 2005

मैं लिखती ही जाऊँगी

मैं लिखती ही जाऊँगी।

जाने कौन सा है समंदर
बह रहा जो मेरे अंदर।
कभी खाली नहीं कर पाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

कभी मतलब का, कभी बेमतलब,
उमड़ता रहता है पर सब।
कहाँ इन्हें ले जाऊँगी?
मैं लिखती ही जाऊँगी।

आँसू होंगे हँसी होगी,
ग़म, कभी खुशी होगी।
सबका साथ निभाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

विशाल विश्व, जटिल दुनिया,
मैं इसमें छोटी-सी चिड़िया।
कुछ कर ना शायद पाऊँगी।
पर लिखती ही जाऊँगी।

कोई शायद पहचानेगा,
कोई व्यर्थ ही मानेगा।
पर किसी का क्या ले जाऊँगी?
मैं लिखती ही जाऊँगी।

दर्द, हँसी, आँसू सब मिलकर,
जब खेल रचाएँ मेरे दिलपर।
लिख कर ही चैन पाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

आभार उसका जिसने दी भाषा,
कलम ने पूरी की अभिलाषा।
उद्देश्य उनका निभाऊँगी।
मैं लिखती ही जाऊँगी।

Wednesday, February 16, 2005

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

सपने दिखाती है ये हज़ार
सभी मानों रहे हों पुकार।
पर अलग-अलग सपनों के बीच
दीवार खड़ी करती क्यों है?

ज़िन्दग़ी सवाल खड़े करती क्यों है?

Sunday, February 13, 2005

क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

क़दम अकेले बढ़ाए मैंने कई बार,
पर्वतों-खाईयों को किया अकेले पार।
उतार-चढ़ाव ज़िन्दगी के
कितने ही झेली हूँ मैं।

और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

कभी उतरी एक देश अनजान,
निकली बाहर जब थी नादान।
और तब भी तनहाइयों से
हँसते-हँसते खेली हूँ मैं।

और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?

Thursday, February 10, 2005

जड़ और फल

जड़ें मिट्टी के अंदर होती हैं,
वहाँ पानी और पोषण तो रहता है।
पर हवा ढंग से नहीं पहुँचती और
जीवन जड़ है, कभी नहीं बहता है।

खुली हवा खाते हैं, तोड़े जाते हैं,
फल जो ऊँचाई पर उगते हैं।
किसी की भूख मिटाते हैं,
किसी बीमार का पथ्य बन जाते हैं।
कई हाथों से गुज़रते हैं, दुनिया देखते हैं,
और दुनिया के काम आते हैं।

पर जीवन उनका भी तो जड़ से ही आता है,
और इसलिए एक सवाल मुझे खाए जाता है -
काश ये समझ पाती कि क्या करूँ।
फल बनूँ या कि मैं जड़ बनूँ?


गीत कोई मन में तो है

गीत कोई मन में तो है।

सड़क नहीं है तेज धूप है,
पड़ा मानव का विकृत रूप है।
भूख अकेली नहीं साथ में
गिरा हुआ एक छत भी है।
सिहरन उसकी तन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

बंद भविष्य के रास्ते हैं,
अँधेरों में दिन काटते हैं ।
विडंबना ही है क़िस्मत की,
वरना कुछ कर पाने की क्षमता
थोड़ी हर जन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

सूखा क्यों लगता ये विवरण,
ख़ुद को धिक्कारता क्यों है मन?
कुछ छूट गया है, कुछ छोड़ आई हूँ,
कुछ सच्चाइयों से दूर करने की हाय!
क्षमता अभागे धन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

Friday, February 04, 2005

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

किस्से नहीं सुनाते हम,
हाल-ए-दिल नहीं बताते हम,
ज़ाहिर करते नहीं हम पर
तक़दीर की क्या इनायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

डरते हैं हम अपने ही कल से,
जीते हैं एक पल से दूजे पल पे,
कैसे बताएँ इनायत करने वाली
तक़दीर की क्या हिदायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।

आज हम बाँटे ख़ुशियाँ अपनी,
रहमदिल हुई कब दुनिया इतनी,
कल छिन गईं तो सह न सकेंगे,
जो हँसी में उड़ाने की रवायत है।

दुनिया को हमसे बेरुख़ी की शिक़ायत है।


Tuesday, February 01, 2005

गीतों को कैसे जीती हूँ मैं

ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।
कैसे इस श्रापग्रस्त धरती पर होकर
भी देवों का अमृत पीती हूँ मैं ।

कितना बुरा लगता है मुझे
कि खुशियाँ नहीं बाँट सकती अपनी,
भाग्य के पक्षपात पर भी आश्चर्य होता है,
ज़िन्दग़ी अजीब होती है कितनी ।

पर फिर भी अगर मेरी एक मुस्कान,
या एक हँसी पहुँचती है तुझतक,
गा ले एक छोटा-सा गीत तू भी खुश होकर,
देखूँ क्या गूँज आती है मुझतक?

स्वार्थी ! स्वार्थी ! मेरा मन मुझे ही
धिक्कारता है पर घोंट लेती हूँ मैं ।
ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।

Friday, January 28, 2005

मै सपने क्यों देखूँ?

मै सपने क्यों देखूँ?

जब यथार्थ सपनों सा हो,
और साथ मेरे अपनॊं का हो ।
मीठा मीठा दर्द मिल जाए जब यूँ ।

मै सपने क्यों देखूँ?

रातों की प्यारी सर्द हवायें
जब मेरे तन-मन को छू जायें ।
क्यों न एकटक मैं चाँद को लेखूँ ।

मै सपने क्यों देखूँ?

प्रात-किरण खिड़की से आकर,
गीत कोई जागृति का गाकर
पूछे, "क्यों सोई है तू?"

मै सपने क्यों देखूँ?


Monday, January 24, 2005

हम दो पल चुरा लें तो?

ज़िन्दग़ी ऐसे भागती जा रही है,
रुकने का उसको समय नहीं है ।
पर थोड़ी देर ज़िन्दग़ी को अपने घर बुला लें तो?

बारिश है, बाढ़ आ सकती है,
कमज़ोर है, जान जा सकती है ।
उससे पहले दो बार सावन के झूले झुला लें तो?

ज़िम्मेदारियाँ हैं हम पर कई तरह की,
कमी है हमारे पास समय की ।
पर इस भाग-दौड़ से भी हम दो पल चुरा लें तो?

Sunday, January 23, 2005

विश्वास

कई लम्हे खुशियों के
कई पल सुख के
कई मुस्कानें रख दीं
तुमने मेरे मुख पे ।

कभी तुम्हारी प्रीत ने
दिल तोड़ा नहीं आस का ।
पर सच कहूँ? इन सबसे
बड़ा था वो एक पल विश्वास का!

Thursday, January 20, 2005

चुप रहना ही पड़ता है ।

चुप रहना ही पड़ता है।

दिल में छिपकर, हर दिन हर पल,
जो बात मुझे अंदर से खाती है,
सामने आकर बोलना चाहूँ उससे पहले
ही तुम्हें समझ में आ जाती है।

कहने को क्या बचता है?
चुप रहना ही पड़ता है।

रातों को अक्सर सपने आते हैं,
जिनमें कोई हँसता रोता है।
सुबह उठकर पता चलता है
तुमने भी वही देखा होता है।

अलग तुमसे क्या रहता है?
चुप रहना ही पड़ता है।

जो गीत मेरे दिल में रहता है,
अचानक वही गुनगुनाते हो।
जो बात मेरे मन में आती है,
जाने कब तुम ही कह वो जाते हो।

आश्चर्य मुझे तो लगता है,
पर चुप रहना ही पड़ता है।

शिकायतें नहीं कर रही मैं
मन ही मन में मुसकाती हूँ।
सच हो सकता है यह सब
सोच कर हैरान तो मैं हो जाती हूँ।

शायद तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लगता है,
कि बहुत कुछ होने पर भी
चुप रहना ही पड़ता है।

Wednesday, January 19, 2005

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

देख रहे हो पर्वत की उत्तुंग शिखाएँ?
मानव-पथ में लाया ये कितनी बाधाएँ!
पर अपनी ऊँचाई से प्रेरित करता रहा हमेशा,
आओ पैरॊं के निशान हम उसपर अपने भी रख दें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

देख रहे हो पहाड़ों पर रहने वाले मानव भोले?
ऊँची-नीची थकाने वाली राहों पर हैं बैठे खोले,
राज़ अनेकों नए पुराने, प्रकृति ने जो दिए हमें हैं,
आओ इन संग बैठ क्षण भर हिमकणों से हम भी खेलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

खा नहीं सकते ये हम-तुम, देखो व्यंजन ये अजीबोग़रीब,
क्षणभर में ही ले आया ये, विभिन्नताओं को कितना क़रीब।
कुछ देना चाहते हैं ये, महत्व जिसका हमारी जीवन-शैली में नहीं,
आओ फिर भी भेंट इनसे प्यार भरी ये हम-तुम ले लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

कोशिश कर लो कितनी ही, भाषा ये समझ नहीं आती,
पर कोई सूत्र तो है, बात हमारी मानव बुद्धि समझ ही जाती।
कहना-सुनना इनसे कुछ है, भाषाएँ दीवार नहीं बनेंगी,
आओ परे भाषा के जाकर इनकी भी कुछ याद सँजो लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

दूर-दूर तक देखो कैसे, सागर यहाँ लहरा रहा,
लहरें निमंत्रण इसकी देतीं, हमको पास बुला रहा,
रहस्य अनगिनत हैं इसके अंदर छिपे जाने कब से,
ये रेत ज़रा टटोलें आओ हम भी सीपी मोती ढूँढ़े।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

पक्षी इतने दूर-दूर से क्यों यहाँ उड़ आते हैं?
अपनी भाषा में गाते क्यों, जाने, हमको लुभाते हैं।
अलग-सी दुनिया होगी उनकी, पर आनन्द वहाँ भी है,
आओ क्षण भर इनकी गुनगुन में हम भी खो लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

वीरान बने ये खंडहर कभी आलीशान रहे होंगे,
कोई मुस्कान खिली होगी, कुछ क्रूर ठहाके लगे होंगे,
उस समय यदि हम आते तो ये पहुँच से हमारे बाहर होते,
बीते समय का लाभ उठाकर आओ इनकी कथा टटोलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

ये कटे वृक्ष, ये बीमार से चेहरे, कुछ इनका भी संदेश है,
कैसे चकित हुऎ बैठे हैं अलग सा जॊ हमारा वेश है,
किस्मत ने यदि कृपा की है तॊ क्या हम कुछ कर सकते नहीं?
कुछ और नहीं तॊ थॊड़ी देर हम इनके भी सुख-दुख झेलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

कितनी व्यथा, कितने आँसू, इन सबकी कोई कहानी है,
सुख-दुख तो यहाँ रहते ही हैं, ये दुनिया आनी-जानी है।
इस चक्र से निकल नहीं सकते हम, पर जी तो उसको सकते हैं,
इस दुनिया के हर कोने से हम थोड़े से सुख-दुख ले लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

यों तो हम दुनिया अपनी एक-दूजे तक सीमित कर सकते हैं,
पर बनेंगे छोटे से महल जो, कभी भी वे ढह सकते हैं,
बना सके दुनिया विशाल तो जीवन कभी सूना न होगा ।
इतना विशाल है विश्व सामने, क्यों न प्रेम को शरण हम दे दें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।


मुझसे मिलने आओगे ना?

मज़बूरियाँ हैं जो बाँधे हैं,
वादे हैं जो मुझे निभाने हैं,
साथ नहीं दे पाऊँगी तुम्हारा
इसके लिए माफ़ तो कर पाओगे ना?

राहें बंद हुईं तुम्हारी अगर मेरी वज़ह से
ग्लानि से भर जाऊँगी मैं ज़िंदा रह के ।
जब भी कोई नया रास्ता दिखाएगी ज़िन्दग़ी
उस पर तुम आगे तो बढ़ जाओगे ना?

और जब मुझे ऐसी ज़रूरत पड़ेगी,
कि तुम्हारी यादें ही सहारा बन सकेंगी,
उस वक्त़ मेरे सपनों में तुम
ख़ुद आगे बढ़कर आओगे ना?

काँटें बन जायेंगी जब राहों में मेरी यादें
चुभने लगें हृदय में कुछ अनकहे वादे,
उस समय अपनी और औरों की ख़ातिर
तुम मुझे भूल तो पाओगे ना?

और जब कभी छूट रही होंगी मेरी साँसें अन्तिम,
कसक और बेबसी का अहसास बढ़ता होगा हर दिन,
उस दिन एक बार फिर सहारा देने को
कुछ पल के लिए ही, मुझसे मिलने आओगे ना?

Wednesday, January 12, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (3)

मैं ख़ुद को सँभालने की कोशिश करती हूँ,
पर इस असंभव बहाव में लिए कहाँ पर जाती है मुझे?
कैसी भूलभुलैया है जहाँ एक साथ ही असीम आनंद
और डरावनी शंकाओं का अहसास करवाती है मुझे ?

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Monday, January 10, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (2)

मैं तुझे शब्दों में ढालने की कोशिश करती हूँ,
पर ख़ुद की असमर्थता पर तू क्षोभ से भर जाती है मुझे ।
और कभी अनकही बातॊं का अर्थ गुनगुना मेरे कानॊं में
बिना वज़ह आई मुस्कान से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

ठीक है तू चुप ही रह, मैं भी चुप ही बैठती हूँ;
चुप्पी में ही तू मानो सितारों से जड़ जाती है मुझे ।
पहली बार ही समझाया तूने महत्व शब्दों की असमर्थता का,
ओह! कैसे तू अक्सर एक नए अहसास से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Friday, January 07, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (1)

जब भी लगता है, चीज़ें और बुरी नहीं हॊ सकतीं,
तू दे एक और बुरी ख़बर जाती है मुझे ।
और आँख-मिचौली खेलती हुई, अपनी करतूतॊं से
हर नए दिन थॊड़ा ज्यादा हैरान कर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

मैं भागती हूँ तेरे पीछे, तुझे समझने कॊ,
पर बहरूपियॆ-सी तू हमेशा छल जाती है मुझे ।
मैं तुझे अपनी तरह देखने की कॊशिश करती हूँ,
पर छलिनी, तू उलटा बदल जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

जब कॊसती हूँ तुझे, तेरी शैतानियॊं कॊ,
तॊ एक अलग से ही रूप में नज़र आती है मुझे ।
उनींदी आँखें मेरी खुल पायें उससे पहले ही,
तकिए के किनारे रखी तेरी कॊई प्यारी चीज़ मिल जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

तेरे बारे में मेरे मेरे क्षण-क्षण बदलते विचार से,
अपनी अस्थिरता पर खुद ही शर्म आती है मुझे ।
तुझे छॊड़ती भी नहीं मैं क्या करूँ, जैसी भी है,
जॊ भी है, तू हमेशा ही पर भाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Sunday, January 02, 2005

नहीं, तुम दूर ही अच्छे

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

दूर जो हो तुम आँखों से
तो मन के एक निष्कलुष संसार में
तुम्हें बसा रखा है मैंने
हृदय के स्वच्छंद विहार में ।

पास आ गए तो रोज़ की हज़ारों
चिंताओं के बीच तुम्हें पाऊँगी कैसे ?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम नातों से अलग हो
रिश्तों से परे हो,
मेरे हृदय में एक प्रकाश-पुंज
या रत्न से जड़े हो ।

पास आ गए तो एक ओर तुम्हें रख
दूजी ओर कैसे निभाऊँगी रिश्ते?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

जी मचल जाता है तुम्हें याद करते ही,
सिहर जाती हूँ ख्यालों में ही तुम्हें महसूस कर ।
स्वप्नों में भी तो सताते रहते हो,
बहरूपिये सा कोई रूप धर ।

पास आ गए तो इस हृदय की
धड़कन तेज होने से बचाऊँगी कैसे?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम स्वप्न-से सुंदर हो,
कल्पनाओं-से मोहक हो,
क्लेश भरे मेरे जग से दूर
धैर्य व शांति के द्योतक हो ।

पास आ गए तो विश्वास नहीं कर पाऊँगी
कि इस जग के हो, फिर भी हो इतने सच्चे ।

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।