Monday, January 10, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (2)

मैं तुझे शब्दों में ढालने की कोशिश करती हूँ,
पर ख़ुद की असमर्थता पर तू क्षोभ से भर जाती है मुझे ।
और कभी अनकही बातॊं का अर्थ गुनगुना मेरे कानॊं में
बिना वज़ह आई मुस्कान से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

ठीक है तू चुप ही रह, मैं भी चुप ही बैठती हूँ;
चुप्पी में ही तू मानो सितारों से जड़ जाती है मुझे ।
पहली बार ही समझाया तूने महत्व शब्दों की असमर्थता का,
ओह! कैसे तू अक्सर एक नए अहसास से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

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