Tuesday, February 22, 2005

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

हाथों में लेकर अपनी क़िस्मत,
सर उठाने की करूँगी हिम्मत।
और कभी ले जाए जहाँ चाहे तू मुझे,
दे पल तो अपना स्वप्न देश मैं ही चुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

बताकर स्वप्न व यथार्थ का अंतर,
बरसाती रह तू शोले मुझपर,
पर मुझे रोकना नहीं मैं दो पल
कुछ सपने अपने कहीं बुनूँगी।

ज़िन्दग़ी! दो पल सवाल तेरे मैं नहीं सुनूँगी।

3 comments:

Abrokstudio said...

बहुत ही सुन्दर रचना है

Amardeep said...
This comment has been removed by the author.
Daisy said...

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