गीतों को कैसे जीती हूँ मैं
ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।
कैसे इस श्रापग्रस्त धरती पर होकर
भी देवों का अमृत पीती हूँ मैं ।
कितना बुरा लगता है मुझे
कि खुशियाँ नहीं बाँट सकती अपनी,
भाग्य के पक्षपात पर भी आश्चर्य होता है,
ज़िन्दग़ी अजीब होती है कितनी ।
पर फिर भी अगर मेरी एक मुस्कान,
या एक हँसी पहुँचती है तुझतक,
गा ले एक छोटा-सा गीत तू भी खुश होकर,
देखूँ क्या गूँज आती है मुझतक?
स्वार्थी ! स्वार्थी ! मेरा मन मुझे ही
धिक्कारता है पर घोंट लेती हूँ मैं ।
ऐ दुनिया! काश तुझे बता पाती
कि गीतों को कैसे जीती हूँ मैं ।
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