Monday, March 28, 2005

ज़िन्दग़ी की खुली किताब

सोचती हूँ ख़त्म कर दूँ तुझे
ऐ ज़िन्दग़ी की खुली किताब,
आज ही, जब सब ख़ुशनुमा है
और पूरा निकला है माहताब।

दो पल मुसकरा दे कोई
तेरी एक झलक पाकर,
काम तेरा हो जाएगा
पूरा दुनिया में आकर।

कल अँधेरे हो सकते हैं
ज़िन्दग़ी में, और उसका असर
पड़ेगा तुझपर भी, अगर
टूटा कहीं वक़्त का कहर।

क्यों आँसू से धोऊँ तुझको,
क्यों छीनूँ तेरी मुसकान?
क्यों ना बंद कर दूँ तुझको
अंत आज ही तेरा मान?

किसी ने फिर उठाया तुझे
अगर कभी बरसों के बाद,
हँस देना मुसकान में उसकी
कर दम भर तू मुझको याद।