Thursday, November 27, 1997

मेरे दोस्त!

क्या करूँ ज़िन्दग़ी के उन दोराहों पर,
जहाँ ज़बान ही चुप हो जाती है।
दिमाग़ तो कुछ नहीं ही कहता है,
आत्मा भी जब मूक हो जाती है।

जब अतीत कुछ याद नहीं आता,
भविष्य की योजना नहीं बन पाती,
वर्तमान एक कशमकश हो जाता है,
और खुद से खुद की ही ठन जाती।

जब सब कुछ अनजाना लगता है,
और महसूस होता है अपना बौनापन,
जब कंधे ढो नहीं पाते
चुनौतियों भरा ये जीवन।

जब गुस्सा भिंची मुठ्ठियों में छिप जाता है
और आँसू मुँदी पलकों में रह जाते,
सपने और भावनाओं से डर-सा लगता है
और दिल-ओ-दिमाग भी साथ छोड़ जाते।

तब महसूस होता है मुझे मेरे दोस्त!
कि मुझे तुम्हारी ज़रूरत है।
कल्पना मात्र नहीं ये सब कुछ
यही जीवन की सबसे बड़ी हक़ीकत है।

नहीं जानती कि तुम्हारा काल्पनिक रूप
कहीं मूर्त है भी कि नहीं,
लेकिन किसी कोने में यह विश्वास है
कि भावनाएँ अभी मरी नहीं।

Saturday, September 27, 1997

भारतमाता!

भारतमाता!

शत्-शत् है नमन तुझे,
तन-मन है अर्पण तुझे।

भारतमाता!

खुद को ज्ञानी कहने से डरती हूँ,
पर फिर भी सोचने की कोशिश करती हूँ,
जब देखा होगा तूने सभ्यता का पहला उजियाला,
पहनी होगी पहली बार, महिमा-गीतों की माला।
कभी जन्मे होंगे कंस-रावण करने को संहार तेरा,
उतरे होंगे राम-कृष्ण भी करने को उद्धार तेरा।
वशिष्ठ, सांदीपनी देते होंगे
माता-सा ही मान तुझे,
करते होंगे तेरी वंदना,
"तूने ही दिया है ज्ञान मुझे।"
बढ़े होंगे फिर आर्य-पुत्र
संस्कृति के पुनीत पथ पर।
होती होगी तू आनंदित
संतानों की प्रगति लखकर।
क्योंकि तू ही वो होगी जिसने
प्राण से प्रिय बच्चों को अपने
तड़प-तड़प कर, बिलख-बिलख कर,
प्रकृति के कष्टों से लड़कर,
किसी-किसी तरह से जीकर,
मरते हुए देखा होगा।
जना होगा तूने जनक को,
स्वर्ण-युग भोगा होगा।
लिच्छवी गणतंत्र देखकर
अशोक-राज देखा होगा।
आए होंगे शक-कुषाण,
फिर ग्रीक-हूण आए होंगे।
थामकर तलवार हाथ में
तेरे बेटों ने देश-गीत गाए होंगे।
सबको समाती गई होगी तू,
सबको अपनाती गई होगी तू।
'वसुधैव कुटुम्बकम' का प्यारा
गीत गाती गई होगी तू।
बुद्ध-जीन ने भी उसी वक़्त
प्रेम-पाठ गाया होगा।
त्रिरत्न और अष्टांग का
मार्ग भी बताया होगा।
आया होगा बाबर भी फिर,
अकबर ने सिर झुकाया होगा।
हाकिंस के तुझपर क़दम पड़े,
भविष्य सोच दिल तो तेरा रोया होगा।
औरंगजेब ने क्रूरता से
तेरा दिल दुखाया होगा,
लड़ते देख बच्चों को अपने,
जी तो भर ही आया होगा।
बंगाल बना होगा कहीं,
कहीं मैसूर बनाया होगा,
तेरे ही बच्चों ने तेरे अंग-अंग को
बाँट-बाँट कर नाम अलग बताया होगा।
दरारें पड़ गई होंगी
होगी तू अपनों की मारी।
बीच में घुसी होंगी बेड़ियाँ
होगी असहाय तू उनसे हारी।
रोती होगी क़िस्मत पर तू,
"गया कहाँ अब मान मेरा?"
चिल्लाती होगी बच्चों को,
"बहुत हुआ अब जाग ज़रा।"
टकराकर पत्थर से आवाज़ें
तुझ तक ही वापस आती होंगी,
रोकर बच्चों की दुर्दशा पर कोई
शोक-गीत तू गाती होगी।
ढूँढ़ती होंगी तेरी आँखें,
किसी आर्य को, किसी गुप्त को,
जगाना चाहती होगी तू
भारतीयों के हृदय सुप्त को।
जन्मा होगा कोई तिलक फिर
उतरा होगा कोई गाँधी,
झेली होगी भगत सिंह ने
अपने ऊपर तेरी आंधी।
उपजा होगा उत्साह नया
रंग वही लाया होगा,
गुम हुई स्वाधीनता को
तूने फिर पाया होगा।
अब तक के इतिहास में तूने
मानव की मानवता देखी होगी,
दानवता भी भोगी होगी
देवत्व की गोद में तू लेटी होगी।
आर्यपुत्रों का पतन देखा होगा तूने,
मानव को दानव में बदलते देखा होगा,
डरकर इन परिवर्तनों से संभवतः तेरा कोई
पुत्र तेरी गोद में आकर भी लेटा होगा।
ख़ैर! अंत मे एक दिन तूने
मंज़िल एक पाई होगी,
होकर प्रफुल्लित एक बार फिर
तू प्रेम-गीत गाई होगी।
पाकर स्वीधीनता तूने
सपने नए सँजोए होंगे,
सपनों को पूरा करने को
आशा-बीज बोए होंगे।

भारतमाता!

किन्तु सच-सच बतलाना मुझको
क्या स्वप्न-लोक वह चूर हो गया?
आशाओं का रूप वो तेरा
क्या काल्पनिक एक हूर हो गया?
शायद सच!
झटका लगा था ना तुझको
जब अंग तेरा एक भंग हुआ था?
रोई थी न तू बहुत ही
जब मिट्टी का लाल रंग हुआ था?
रोती है न आज भी बहुत
सुनकर तू खेल उनके?
धिक्कारती है न ख़ुद को ही तू
देख कपूतों के मेल अपने?
'इंडिया, नथिंग बट रबिश' जब सुनती है तू
टीस तेरे दिल में उठती है न?
जब अखबार होते हैं काले, काले कारनामों से
तब शर्म से नज़रें तेरी झुकती हैं न?
जब मुकुट पर तेरे चलती है गोलियाँ
तो नसें दिमाग़ की फटती हैं न?
लाता है सागर जब कुसंसकृति का ज़हर
तो पहचान तेरी मिटती है न?

भारतमाता!

दे-दे बस अपना आशीर्वाद।
दे-दे अपनी कृपा का प्रसाद।
शक्ति दे तू इतनी मुझको,
ढूँढ़ पाऊँ मैं चन्द्रगुप्त,
सिकंदर को हराने को उठा सकूँ मैं
उन हृदयों को जो पड़े हैं सुप्त।
या फिर ख़ुद ही बन जाऊँ मैं
विवेकानंद या बुद्ध महान्।
जयचंद का भूत भगाकर
बन जाऊँ खुद ही चौहान।
हो एक बार फिर विश्व में
तेरे ही ज्ञान की विजय।
ताकि हम फिर पुकार पाएँ
"भारतमाता! तेरी हो जय!"

Friday, August 08, 1997

झुक जाती हूँ मैं

सुना है हर प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना विज्ञान है,
आज के युग में संभवतः सबसे बड़ ज्ञान है,

लेकिन अपने प्रश्नों के जवाब देने में
इसे जब समर्थ पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

देखी है मैंने शामों में वो बादलों की कालिमा,
चमकती है कैसी उसपर सूर्य की लालिमा,

लेकिन इनकी उपमा देने के लिए
अपनी पहुँच की कोई चीज़ नहीं पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

जब जानती हूँ कि सामने कोई मुझसे कमज़ोर है,
और मेरे आगे चल नहीं सकता उसका ज़ोर है,

फिर भी जब उसे ख़ुद से ही
जीतता हुआ पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

जब संसार मान लेता है मुझे विजयी,
जीत पाती जाती हूँ रोज़ नई-नई,

लेकिन ख़ुद से ख़ुद के ही द्वंद्व में
जब ख़ुद को हारती पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

दुनिया के संग मैं भी पहुँच सकती हूँ चाँद पर,
छूने की कोशिश कर सकती हूँ सूर्य को अपनी आन पर,

मगर एक और सूर्य या चन्द्रमा बनाने में
जब असफल हो जाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

उम्र की निशानी चेहरे पर से हटा सकती है आज की दुनिया,
इतनी सक्षम है वो कि चेहरे को कर सके नया,

लेकिन जन्म, जरा और मृत्यु पर
जब उसका कोई वश नहीं पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

सूर्य है आग, ये चन्द्रमा है पत्थर,
बादल और बिजली से भी नहीं कोई डर,

लेकिन जलते सूर्य, चमकते चन्द्रमा और घूमती पृथ्वी
का शक्ति-स्रोत पता नहीं लगा पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

कुछ स्विचों से रोबोट चला सकती हूँ मैं,
एटम बमों से दुनिया को हिला सकती हूँ मैं।

लेकिन एक दुनिया क्या, एक इन्सान भी
बनाने में जब असमर्थ ख़ुद को पाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

बड़ी-बड़ी समस्याएँ सुलझा सकती हूँ मैं,
अपनी बुद्धि से दुनिया को उलझा सकती हूँ मैं।

लेकिन जब अपने भीतर के ही प्रश्नों में
उलझती चली जाती हूँ मैं,
तो तुम्हारे आगे झुक जाती हूँ मैं।

Friday, June 06, 1997

वो लड़की बनी थी

सोते वक़्त उसके कानों में लोरियाँ नहीं पड़ीं,
उठते वक़्त माँ के प्यारे होठों ने उसे चूमा नहीं,
किताबों की ओर उसकी हसरत भरी निग़ाहें ही जा सकीं,
स्कूल जाते हुए संगी-साथियों के संग वो घूमा नहीं।

उठते ही कामों की लिस्ट उसके सामने पड़ी थी,
कोल्हू के बैल की तरह बिताया उसने दिन,
रात को टूटे हुए शरीर के साथ ज़रूरी नहीं था,
कि वह सोने की कोशिश करता तारे गिन-गिन।

बाल-सुलभ हर आकांक्षा मन में ही दब गई थी,
ज़िद करने का अधिकार उससे छिन गया था,
"बच्चे - मर्ज़ी के मालिक" की परिभाषा के विपरीत था वो
समय से पहले, ज़रूरत से ज़्यादा दायित्व मिल गया था।

मैंने आख़िर किसी से पूछ ही डाला,
"नौकरों-सा क्यों है उस घर से उसका नाता?"
जवाब मिला,"कैकेयी की परंपरा निभाती हुई
उसके घर में है सौतेली माता।"

XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX

बड़ी-बड़ी आँसू भरी वो आँखें
उसकी व्यथा आप ही कह रहीं थी,
रात को झिड़कियाँ सुनकर सोई थी वो
सुबह उठकर फिर से बातें सह रही थी।

भाई का बस्ता सजाते हुए पेन खोला,
तो हाथ काँपे मानो चोरी कर रही हो।
हर हसरत की तरह इसे भी दबा लिया
लगा ऐसा जीते-जी वो मर रही हो।

देखने में बच्ची लगने वाली वो,
समय के पहले ही बड़ी हो गई थी,
उपेक्षा का विषपान करता देख उसे लगता था
मानो सर पर बोझ बन वो खड़ी हो गई थी।

जवाब माँगा मैंने उसके समाज से,
"क्यों?" उसकी तो माँ सौतेली नहीं थी।
सीधा-सपाट उत्तर मेरे कानों में पड़ा,
"विधाता के हाथों वो लड़की बनी थी।"

Tuesday, May 06, 1997

गुलाम कौन था?

सृष्टि के आरंभ से अब तक
गुनगुनाता है ये इतिहास,
युद्धों की श्रृंखला के गीत
जिसमें नहीं होता मेरा अहसास।

मैंने भी जलाया है अपना शरीर
इन युद्धों की चिताओं पर।
लेकिन मेरा नाम कोई नहीं लिखता
सहानुभूति से इतिहास की गाथाओं पर।

क्योंकि मैं उन बर्बर शासकों का अदना सैनिक था
जिन्होंने सिन्धु-ह्वांगहो सभ्यताओं के नष्ट किया था।
क्योंकि मैं उस गोरी के टुकड़ों पर पलता था,
जिसने तुम्हारी संस्कृति को भ्रष्ट किया था।

क्योंकि मैं उस सिकंदर की सेना का अंग था,
जिसकी आकांक्षा के आड़े आ न सकी इंसानियत।
क्योंकि मैं हिटलर और मुसोलिनी का एक प्यादा था
जिनकी हर चाल में छिपी थी हैवानियत।

क्योंकि मैंने दूर किया था तुम्हें
तुम्हारे बीवी-बच्चों घर और परिवार से,
मदद की थी उन वहशी दरिंदों की नाता जोड़ने में
तुम मासूमों का दासों के बाज़ार से।

क्योंकि तुम्हारे मदमत्त शासकों के सैनिक के रूप में
मैंने बरसाई थी तुम पर गोलियाँ बदले में कुल्हाड़ियों के,
किसी के इशारे पर उतार फेंका था तुम्हें
फर्स्ट-क्लास के डब्बे से रेलगाड़ियों से।

लेकिन क्या विश्वास करोगे आज मेरी बात पर
काँपे थे हाथ मेरे गर्दनें तुम्हारी काटते हुए।
चीत्कार कर उठा था मेरा हृदय भी
मौत का या घृणित प्रसाद बाँटते हुए।

रो उठा था मेरे भीतर का इंसान,
किलकारी का रुदन में बदलना सब नहीं पाया था मैं।
वह आगजनी, नरसंहार और मुनाफ़े की हवस देख
विचलित हुए बिना रह नहीं पाया था मैं।

रोक लिया था मुझे मेरी आत्मा ने आगे बढ़ने से इस पथ पर,
लेकिन पीछे मुड़ा तो खड़ा था कोई सिकंदर।
आँखों में हैवानियत का खून उतारे
वो था कोई गोरी, गजनी, मुसोलिनी या हिटलर।

उसकी आँखों की गहराई में मुझे
नज़र आ गया था इस कोशिश पर अपने विनाश का दृश्य।
"जी हुज़ूर", "यस माई लार्ड" कहकर
मैं दुहराने पर मजबूर था अपने वो ही कृत्य।

तुम गुलाम थे तो विद्रोह किया अपनी मर्ज़ी से,
लेकिन मैंने तो अपने मन और इंसानियत को मार ही डाला था।
तुम्हारे बलिदान पर तो सहानुभूति के दो शब्द भी थे,
लेकिन मैं तो त्रिशंकु की तरह ही लटकने वाला था।

तुम गुलाम थे, मानता हूँ,
लेकिन तुमने विद्रोह तो किया।
और मैं "विजय" का सुख भोगते हुए
अपनी आत्मा की धिक्कार सुनता रहा।

आज यदि लोग तुम्हारा नाम नहीं भी जानते हैं,
तो भी श्रद्धा-सुमन चढ़ाते हैं अनजाने नाम पर ही।
पर मुझे अनजाने में ही याद करते हैं मूर्ख और बर्बर के रूप में
जो विजेता कहलाने के लिए मिट गया अपनी खोखली आन पर ही।

बताओ गुलाम कौन था?
तुम या मैं?

Friday, April 18, 1997

मेरी ज़रूरत

ज़िन्दग़ी के इस तमाशे में
जब तक ख़ुद भी कोई तमाशा बनकर
चलती हूँ, तब तक दोस्त की कमी
महसूस नहीं होती इस पथ पर।

लेकिन कभी जब बनकर मूकदर्शक
नज़र फेरती हूँ इन तमाशों पर,
मेरी अनुपस्थिति का कोई प्रभाव
नज़र नहीं आता है लोगों पर।

टीस उठती है दिल में
कि मेरी कोई नहीं पहचान।
मैं किसी की ज़रूरत नहीं हूँ
हर कोई मानो हो मुझसे अनजान।

इच्छा होती है उस वक़्त कि काश!
मैं भी होती किसी की ज़िन्दग़ी का हिस्सा,
किसी की ज़िन्दग़ी के हर पृष्ठ पर होता
उसका मुझसे जुड़ा कोई किस्सा।

हाँ, एक दोस्त की कामना है मुझे
जिसे भी हो मेरी ज़रूरत।
मेरी अनुपस्थिति पर अभाव का अहसास
हो उसकी ज़िन्दग़ी की एक हक़ीकत।

Thursday, April 10, 1997

मेरी पहचान, मेरी कविताएँ

जब ज़िन्दग़ी बेगानी लगती है
तो मुड़कर देखती हूँ अपनी कविताएँ।
मैं क्या थी क्या हो गई हूँ,
शायद कोई अता-पता मिल जाए।

बता देती हैं ये कि मैंने
क्या खोया है, क्या पाया है,
क्या भूली हूँ, क्या सीखा है,
क्या सोचकर क्या गुनगुनाया है।

मिल जाता है इनमें मुझे कि
मैंने क्या सोचा था, क्या देखा था कभी।
बदलाव मुझमें भी नज़र आ जाता है
सोचकर कि क्या नज़रिया है अभी।

मैं क्या सोचती हूँ, क्या देखती हूँ,
क्या मानती हूँ, क्या जानती हूँ,
क्या चाहती हूँ, क्या कहती हूँ,
क्या खोजती हूँ, क्या मानती हूँ?

अब तक के इस सफ़र में मैंने
क्या खोया है, क्या पाया है?
सम्पूर्ण रूप में ऐसा कहो -
मेरा पूरा परिचय क्या है?

ढूँढ़ना चाहते हो तो ढूँढ़ो
शायद इन्हीं में मिल जाए,
क्योंकि मैं तो मेरी कविताएँ ही हूँ,
और मेरी पहचान, मेरी कविताएँ।

Saturday, March 22, 1997

रंग

अरे! रंग कहाँ नहीं हैं,
जो होली के रंग इतने बड़े हैं?
नज़र तो फेरो ज़िन्दग़ी पर
सैकड़ों रंग यहाँ बिखरे पड़े हैं।

रंगों में ही डूबी है रंगीली दुनिया
कुछ भाग लेकिन बिल्कुल बेरंग पड़े हैं।
रंग तो उन चीज़ों में से एक है,
जो विधाता ने सृष्टि के संग गढ़े हैं।

इन्द्रधनुषी रंगों से शोभा है बढ़ी,
ये ही मिलकर बना देते हैं तेज धूप।
रंग ही तो चीज़ है जो गिरगिट बदलती है,
भई! इन रंगों का कमाल भी है बहुत खूब।

ज़िन्दग़ी के रंग हम कई देखते हैं,
आदमी भी रंग बदलने में है माहिर।
रंगों के खेल पर ही दुनिया टिकी है,
बात बिलकुल साफ़ है और जग-ज़ाहिर।

खून के रंग से आज लाल है धरती,
शैतानियत का रंग भी परवान चढ़ा है।
रंग को बदरंग बनाता हुआ भाई!
हर इंसान के ऊपर कोई शैतान चढ़ा है।

खुशियों का रंग है फीका पड़ चुका,
हर सही रंग ही बदरंग हो गया।
आँसुओं की रंगहीन ही धार रह गई,
हर जगह रंग में है भंग हो गया।

हर विकल्प से निरुपाय होकर
होली के रंगों में कोशिश करते हैं हम,
डुबाने की खीझ, हताशा और निराशा
भुलाने को ज़िन्दग़ी के सारे ग़म।

लेकिन कब तक कच्ची इस डोर के संग
काट पाएँगे हम अपना जीवन?
कब तक यों ही बदरंग करते जाएँगे
ज़िन्दग़ी का सुंदर सुहाना हर एक रंग?

Thursday, March 20, 1997

मेरे घर!

मेरे घर! तेरी हर पल की दूरी ने मुझे
हर पल तेरा अहसास दिलाया है।
हर तूफ़ान के बाद तू ही मुझे शरण देगा
हर पल ऐसा अहसास दिलाया है।

मेरी बढ़ती परिरक्वता को भी
ज़रूरत है तेरी छाँव की।
अथाह सागर का पार पाने को
ज़रूरत है तेरी नाव की।

मेरी हर चोट की ज़रूरत है
बस तेरा ही मरहम।
तू और तुझमे रहने वाले ही
बाँट पाएँगे मेरे गम।

याद है आज भी मुझे, तेरा ही
सपना देखती मेरी आँखें।
तेरे बनने से व्यस्त हैं जो
कभी सूनी-सूनी थी राहें।

तेरी एक-एक ईंट में
मेरा कोई सपना छिपा है।
हर एक कतरे पर तेरे
मेरा कोई ख़्वाब लिखा है।

तेरे किसी अंग से मिलकर
जब उल्लसित होता है मेरा मन।
महसूस होता है मुझे तब कि
कैसा है तेरा-मेरा अपनापन!

Thursday, February 27, 1997

पिछली गलियाँ

कल तक जो गलियाँ पहचानी थीं,
आज उनके लिए मेहमान हूँ मैं।
क्या पता आज जो मेरे अपने हैं,
कल उनके लिए अनजान रहूँ मैं।

आगे भागती ज़िन्दग़ी की राहों में कभी
जब पिछली गलियों में चलने का मौका मिलता है,
कहीं, किसी कोने में मन के सोया हुआ
अतीत का रंग-बिरंगा फूल तब खिलता है।

किसी जानी-पहचानी चौखट की ओर
बढ़ते हुए रुक जाते हैं क़दम।
मेरी जगह उनके दिलों में किसी और ने ले ली होगी
सोचकर यह सिहर जाता है बदन।

आँखों को नज़र आता है
कुछ साथियों का बदला रूप।
खिलखिलाते सामने से गुज़र जाते हैं
देकर मुझे अतीत से एक कतरा धूप।

पहचान नहीं पाते वे मुझको,
भावनाएँ पहुँचती नहीं उनतक।
दोष उनका भी नहीं है,
मैं भी तो बदल चुकी हूँ अबतक।

गलियों के भाग जहाँ काँटे बिछे थे,
उनपर चलकर ही गलियाँ पार की थीं मैंने।
काँटों के साथ घावों के निशान भी मिट चुके थे,
जिनकी टीस कभी झेली थी मैंने।

ध्यान आता है तभी कि अब
इन गलियों में लौटकर क्या फ़ायदा?
सीधी सड़क पर ही आगे चलूँ तो
शायद अच्छा रहेगा ज़्यादा।

काफ़ी है कि याद कर लिया मैंने
बीते हुए समय को।
वे यादें, भय के वक़्त मुझको
बनाएँगी अभय जो।

Sunday, February 23, 1997

रुकना सीख लो

हर वक़्त अपने दिल की सोचने वालों,
कभी दूसरों के भी दिल में झाँको।
स्वार्थ सदा ही ख़ुद का देखने वालों,
सोचो कामनाएँ औरों की भी हैं लाखों।

हर क़दम उठाने से पहले सोचो,
उसके नीचे कुचले जाने वालों में तुम होते तो!
मौत का प्रसाद बाँटने से पहले सोचो,
उनकी जगह मौत की नींद तुम जो सोते तो!

दूसरों पर हँसने से पहले जान लो,
तुम भी कोई अंतर्यामी नहीं हो।
भूल कल को तुमसे भी होगी
हर चीज़ के तुम भी ज्ञानी नहीं हो।

कुछ कहने-मानने से पहले ये भी सोचो,
सामने कोई तुमसे कमज़ोर नहीं है।
आज सच हो, तो कल झूठ हो जाओगे,
क़िस्मत के फेर पर किसी का ज़ोर नहीं है।

कितनी उम्र काट ली है तुमने,
जो ज़िन्दग़ी से जीत जाओगे?
हार मानना भी सीख लो तुम,
तभी कल जीत के गीत गाओगे।

हारो नहीं ज़िन्दग़ी से पर,
कभी-कभी झुकना सीख लो।
अवरुद्ध न करो राहें ज़िन्दग़ी की
पर असहायों के लिए रुकना सीख लो।

Wednesday, February 19, 1997

ज़िन्दगी! नहीं मानूँगी भार तुझे

ज़िन्दगी! नहीं मानूँगी भार तुझे
अब नहीं मानूँगी हार तुझसे।

कब तक ढोती जाऊँगी तुझे
ग़म और अंधकार को यथार्थ बनाकर?
कब तक मानूँगी तुझे वो दरिया
जहाँ सुख की किश्ती डूबी मझधार में आकर?


ऐ ज़िन्दगी की पूर्णिमा! सुन ज़रा,
कब तक तू दूर भागेगी मुझसे?
तू रूठ जाए तो रूठ, पर तुझे मान कल्पित
कभी भी मैं नहीं रूठूँगी तुझसे।

कर्म करने को आई हूँ मैं,
हमेशा ग़म ढोने को नहीं!
कुछ कर गुज़रने को जन्मी हूँ मैं
ज़िन्दगी! तुझसे पराजित होने को नहीं।

नहीं कहती कि दुःख आएँगे नहीं,
दावा नहीं करती कि मैं रोऊँगी नहीं।
नहीं मानती कि सुख सारे मिल जाएँगे मुझे
पर ज़िन्दगी! तुझे मैं खोऊँगी नहीं।

तमाशा कहा है तुझे लोगों ने,
तमाशा समझ कर ही जिऊँगी मैं।
दुःख तो आएँगे ही पर आज या कल
सुख! तेरा भी रस पिऊँगी मैं।

न भी पी पाऊँ तो असफलों
की गिनती में नहीं आऊँगी मैं।
उदाहरण दूसरों का लेकर
खुद एक उदाहरण बन जाऊँगी मैं।

Sunday, February 16, 1997

इन पलकों के भीतर

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही भूली-बिसरी यादें
प्रत्यक्ष-सी कुछ कड़वी-मीठी बातें।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही छूटे हुए साथी
यादें उनकी दर्शन उनके कराती।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही हो चुके पापों के प्रमाण,
वे चेहरे जो निकले नहीं सरेआम।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही पुण्यात्माओं की तस्वीरें
जय-जयकार जिनकी नहीं कर पाती धीरे।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अतीत में देखे गए कितने ही स्वप्न,
जिनका बाहर की दुनिया में हो चुका अस्तित्व खत्म।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
आकांक्षाएँ वैसी कितनी ही
कुछ जो पूरी हुईं, कुछ रह गईं।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
आज की दुनिया के कितने ही चित्र
भविष्य की राह पर जो बन जाएँगे मित्र।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अच्छे-मीठे कितने ही स्वप्न
जो सँजोए हैं ताकि हो न खत्म।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही सोची हुई इच्छाएँ
जो शायद भविष्य में पूरी हो जाएँ।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने ही आँसू रखे हैं,
जिन्हें रोका है और अब तक नहीं बहे हैं।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी हृदय-विदारक बातों की तस्वीर,
कितनी ख़ूबसूरत चीज़ें जो लगती हैं हीर।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
उस स्वार्थ से चेहरे पर भरी ग्लानि
जिससे अक्सर दूसरों की हुई हानि।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
दूसरों पर आए गुस्से की लाली
जिन्हें मन-ही-मन देकर रह गई गाली।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितनी ही फूटती आशा की किरणें
संग उत्साह के जो बढ़ी मंज़िल से मिलने।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
कितने आँसू जिनका कारण होगी खुशी,
और जो अभी तक निकलने हैं बाकी।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
अच्छे-बुरे कितने ही दृश्य
सुकर्म-कुकर्म के कितने ही कृत्य।

इन पलकों के भीतर
आँखें बंद करने पर,
शायद सारा का सारा जीवन
जहाँ तक की दूरी माप सकता मेरा मन।

Monday, February 03, 1997

शोषित

शोषित! तू हमेशा, हर युग में शोषित ही रहा है,
किसी-न-किसी रूप में शोषण-योग्य घोषित ही रहा है।
जब तक तेरा मालिक कोई इन्सान न था,
तेरा शोषण इस प्रकृति ने किया।
शासक और शासित में बँट गई जब सभ्यता,
तेरा शोषण शासकों की सृष्टि ने किया।
किसान बनकर शोषित ही रहा तू
सामंतों ने था तुझे सर्फ बनाया,
पूँजीपतियों ने घोषित किया सर्वहारा,
तेरे उद्धार को फिर साम्यवाद था आया।

हर युग में तूने कोई संघर्ष किया है,
शोषण का ही किंतु फिर गरल पिया है।

सभ्यता का सूर्य उगा जो पश्चिम में
उलटा उगकर उसने उलटा ही काम किया था,
दास बनकर ठूँसा गया जहाजों में
तू ही था जो बेड़ियों में बँध के जिया था।

सभ्यता का भवन बन चुका है जो आज
तू ही है जो उसकी हर नींव बना है,
पर नींव की तरह ही मिट्टी के नीचे तू
सड़ता हुआ घुट-घुट कर आज भी पड़ा है।

Thursday, January 30, 1997

हम इन्सान तो कहलाते

एक अमर ज्योति जिसने जलाई,
नई एक राह जिसने दिखाई,

मानती हूँ हर कोई नहीं बन सकता वह अमर गांधी।
नहीं सह सकता हर बड़ी से बड़ी आँधी।
पर ऐसा क्या कि हवा के एक झोंके में उड़ जाए,
महात्मा नहीं, पर एक सही इन्सान भी न बन पाए।

मानती हूँ, हर प्रहार का जवाब शांति से नहीं दे सकते,
जानती हूँ, दुःख क्लेश सारे संसार का ख़ुद पर नहीं ले सकते।
पर क्यों न आगे बढ़कर प्रहार न करें?
सुख न दें, तो दुखों का भी हम वार न करें?

हाँ! एक लंगोट के सहारे काट नहीं सकते हम जीवन,
हर सुख से दूर संयम के संग नहीं रख सकते हैं मन।
लेकिन किसी की वह लंगोट भी तो न छीनें!
सुख रखें अपने पास, उनको भी दें शांति से जीने!

कर नहीं सकते संपत्ति अपनी दूसरों के नाम,
जीवन देकर आ नहीं सकते दूसरों के काम।
कम-से-कम उनका हम खून तो न चूसें!
दुसरों की क़ुर्बानियों पर तो न थूकें!

सपनों में ही रह गए जो, उसे तो पूरा न किया,
जो टूट गए थे उसे तो फिर जोड़ा न गया,
यथार्थ जो थे बन चुके हम उसे तो बचाते!
जुड़े हुए जो थे, उसे तोड़ने में ज़ोर तो न लगाते!

जिसे जीने में दुःख दिया, उसकी आत्मा को तो न रुलाते,
महात्मा नहीं बन पाए, हम इन्सान तो कहलाते!

Monday, January 06, 1997

नववर्ष

"स्वागत है नववर्ष
विदा पुरातन वर्ष
लेकर आए हो तुम हर्ष"
कह रहे हैं सब
नववर्ष जो आया है अब।

आ रही हैं शुभकामनाएँ,
कि गए वर्ष को हम भूल जाएँ,
और साथ लेकर नया एक हर्ष,
प्रारंभ करें अपना नववर्ष।

तो क्या हम भूल जाएँ,
गए वर्ष की असफलताएँ,
जिनकी खीझ हमें चुनौती देती है,
कि इस वर्ष हम पाएँ सफलताएँ?

और क्या भूल जाएँ वो सफलताएँ,
जिनके के लिए हमने खुशी के गीत हैं गाए,
और जिनसे हमें बल मिले है,
कि इस वर्ष भी हम आगे बढ़ते जाएँ?

क्या मिटा दें निशान उन अपनों के,
जो अब काबिल हैं बस सपनों के,
क्योंकि अब वे लौटकर नहीं आएँगे,
और हम उनके पास जाना नहीं चाहेंगे?

क्या भूल जाएँ हम उन बेगानों को,
जिन्होंने सजाया हमारे जीवन के गानों को,
और जाते जाते जो दे गए संदेश,
कि बढ़ते हुए ही काटना जीवन अपना शेष?

क्या भूल जाएँ उन हृदय-विदारक घटनाओँ को,
जिन्होंने भरा था हमारे मन में भयंकर आक्रोश,
और जो अपनी भयानकता से दे गयी थीं
उन्हें दुबारा ना होने देने का हममें जोश?

क्या भूल जाएँ बीते उन सुहाने दिनों को,
जो मिलते हैं नसीब से कुछ इने-गिनों को
और जो दे गए हैं हमें ऊर्जा,
कि हम सह सकें इस वर्ष के भी गमों को।

और तुम ही बताओ हमारे शुभाकांक्षी
क्या हम तुम्हें भी भूल जाएँ?
बीते वर्ष का साथी होने के कारण,
तुम्हें भी क्या जीवन के एक कोने में छोड़ जाएँ?

नहीं हम ऐसा नहीं कर सकते।
समय चला गया, पर कर्ज़ उसका नहीं भर सकते।
वही नींव है, जिसपर हम महल खड़ा करेंगे,
नव वर्ष में उस सूखे पेड़ को ही फिर से हरा करेंगे।

यदि यों ही भूलते जाते हम,
तो अपना अतीत आज नहीं पाते हम।
भूल जाते हम बुद्ध के उपदेश।
भूल जाते महावीर के संदेश।

भूल जाते कि जीसस ने हमें दया का उपदेश दिया था।
भूल जाते कि अशोक ने हमारे लिए क्या-क्या किया था।
भूल जाते वशिष्ठ, सांदीपनी, गर्ग और अपने आदर्शों को।
भूल जाते सत्य के लिए किए गए अपने संघर्षों को।

भूल जाते गार्गीस मैत्रेयी, अनूसूया और भारती को,
भूल जाते वीरों की उतारी जाने वाली आरती को,
भूल जाते हम गांधी के बलिदानों को,
फाँसी पर हँस कर झूलने वाले, इस विश्व के उन महानों को।

भूल जाते ये भी कि हम इंसान हैं।
इस दुनिया में चंद दिनों के मेहमान हैं।
इन चंद दिनों में सीख लेना है हमें बीतते समय के अनुभव से,
कि इस दुनिया के, इस दुनिया में हमपर कितने अहसान हैं।