पिछली गलियाँ
कल तक जो गलियाँ पहचानी थीं,
आज उनके लिए मेहमान हूँ मैं।
क्या पता आज जो मेरे अपने हैं,
कल उनके लिए अनजान रहूँ मैं।
आगे भागती ज़िन्दग़ी की राहों में कभी
जब पिछली गलियों में चलने का मौका मिलता है,
कहीं, किसी कोने में मन के सोया हुआ
अतीत का रंग-बिरंगा फूल तब खिलता है।
किसी जानी-पहचानी चौखट की ओर
बढ़ते हुए रुक जाते हैं क़दम।
मेरी जगह उनके दिलों में किसी और ने ले ली होगी
सोचकर यह सिहर जाता है बदन।
आँखों को नज़र आता है
कुछ साथियों का बदला रूप।
खिलखिलाते सामने से गुज़र जाते हैं
देकर मुझे अतीत से एक कतरा धूप।
पहचान नहीं पाते वे मुझको,
भावनाएँ पहुँचती नहीं उनतक।
दोष उनका भी नहीं है,
मैं भी तो बदल चुकी हूँ अबतक।
गलियों के भाग जहाँ काँटे बिछे थे,
उनपर चलकर ही गलियाँ पार की थीं मैंने।
काँटों के साथ घावों के निशान भी मिट चुके थे,
जिनकी टीस कभी झेली थी मैंने।
ध्यान आता है तभी कि अब
इन गलियों में लौटकर क्या फ़ायदा?
सीधी सड़क पर ही आगे चलूँ तो
शायद अच्छा रहेगा ज़्यादा।
काफ़ी है कि याद कर लिया मैंने
बीते हुए समय को।
वे यादें, भय के वक़्त मुझको
बनाएँगी अभय जो।
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