शोषित
शोषित! तू हमेशा, हर युग में शोषित ही रहा है,
किसी-न-किसी रूप में शोषण-योग्य घोषित ही रहा है।
जब तक तेरा मालिक कोई इन्सान न था,
तेरा शोषण इस प्रकृति ने किया।
शासक और शासित में बँट गई जब सभ्यता,
तेरा शोषण शासकों की सृष्टि ने किया।
किसान बनकर शोषित ही रहा तू
सामंतों ने था तुझे सर्फ बनाया,
पूँजीपतियों ने घोषित किया सर्वहारा,
तेरे उद्धार को फिर साम्यवाद था आया।
हर युग में तूने कोई संघर्ष किया है,
शोषण का ही किंतु फिर गरल पिया है।
सभ्यता का सूर्य उगा जो पश्चिम में
उलटा उगकर उसने उलटा ही काम किया था,
दास बनकर ठूँसा गया जहाजों में
तू ही था जो बेड़ियों में बँध के जिया था।
सभ्यता का भवन बन चुका है जो आज
तू ही है जो उसकी हर नींव बना है,
पर नींव की तरह ही मिट्टी के नीचे तू
सड़ता हुआ घुट-घुट कर आज भी पड़ा है।
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