Thursday, January 30, 1997

हम इन्सान तो कहलाते

एक अमर ज्योति जिसने जलाई,
नई एक राह जिसने दिखाई,

मानती हूँ हर कोई नहीं बन सकता वह अमर गांधी।
नहीं सह सकता हर बड़ी से बड़ी आँधी।
पर ऐसा क्या कि हवा के एक झोंके में उड़ जाए,
महात्मा नहीं, पर एक सही इन्सान भी न बन पाए।

मानती हूँ, हर प्रहार का जवाब शांति से नहीं दे सकते,
जानती हूँ, दुःख क्लेश सारे संसार का ख़ुद पर नहीं ले सकते।
पर क्यों न आगे बढ़कर प्रहार न करें?
सुख न दें, तो दुखों का भी हम वार न करें?

हाँ! एक लंगोट के सहारे काट नहीं सकते हम जीवन,
हर सुख से दूर संयम के संग नहीं रख सकते हैं मन।
लेकिन किसी की वह लंगोट भी तो न छीनें!
सुख रखें अपने पास, उनको भी दें शांति से जीने!

कर नहीं सकते संपत्ति अपनी दूसरों के नाम,
जीवन देकर आ नहीं सकते दूसरों के काम।
कम-से-कम उनका हम खून तो न चूसें!
दुसरों की क़ुर्बानियों पर तो न थूकें!

सपनों में ही रह गए जो, उसे तो पूरा न किया,
जो टूट गए थे उसे तो फिर जोड़ा न गया,
यथार्थ जो थे बन चुके हम उसे तो बचाते!
जुड़े हुए जो थे, उसे तोड़ने में ज़ोर तो न लगाते!

जिसे जीने में दुःख दिया, उसकी आत्मा को तो न रुलाते,
महात्मा नहीं बन पाए, हम इन्सान तो कहलाते!

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