Thursday, March 20, 1997

मेरे घर!

मेरे घर! तेरी हर पल की दूरी ने मुझे
हर पल तेरा अहसास दिलाया है।
हर तूफ़ान के बाद तू ही मुझे शरण देगा
हर पल ऐसा अहसास दिलाया है।

मेरी बढ़ती परिरक्वता को भी
ज़रूरत है तेरी छाँव की।
अथाह सागर का पार पाने को
ज़रूरत है तेरी नाव की।

मेरी हर चोट की ज़रूरत है
बस तेरा ही मरहम।
तू और तुझमे रहने वाले ही
बाँट पाएँगे मेरे गम।

याद है आज भी मुझे, तेरा ही
सपना देखती मेरी आँखें।
तेरे बनने से व्यस्त हैं जो
कभी सूनी-सूनी थी राहें।

तेरी एक-एक ईंट में
मेरा कोई सपना छिपा है।
हर एक कतरे पर तेरे
मेरा कोई ख़्वाब लिखा है।

तेरे किसी अंग से मिलकर
जब उल्लसित होता है मेरा मन।
महसूस होता है मुझे तब कि
कैसा है तेरा-मेरा अपनापन!

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