Saturday, March 22, 1997

रंग

अरे! रंग कहाँ नहीं हैं,
जो होली के रंग इतने बड़े हैं?
नज़र तो फेरो ज़िन्दग़ी पर
सैकड़ों रंग यहाँ बिखरे पड़े हैं।

रंगों में ही डूबी है रंगीली दुनिया
कुछ भाग लेकिन बिल्कुल बेरंग पड़े हैं।
रंग तो उन चीज़ों में से एक है,
जो विधाता ने सृष्टि के संग गढ़े हैं।

इन्द्रधनुषी रंगों से शोभा है बढ़ी,
ये ही मिलकर बना देते हैं तेज धूप।
रंग ही तो चीज़ है जो गिरगिट बदलती है,
भई! इन रंगों का कमाल भी है बहुत खूब।

ज़िन्दग़ी के रंग हम कई देखते हैं,
आदमी भी रंग बदलने में है माहिर।
रंगों के खेल पर ही दुनिया टिकी है,
बात बिलकुल साफ़ है और जग-ज़ाहिर।

खून के रंग से आज लाल है धरती,
शैतानियत का रंग भी परवान चढ़ा है।
रंग को बदरंग बनाता हुआ भाई!
हर इंसान के ऊपर कोई शैतान चढ़ा है।

खुशियों का रंग है फीका पड़ चुका,
हर सही रंग ही बदरंग हो गया।
आँसुओं की रंगहीन ही धार रह गई,
हर जगह रंग में है भंग हो गया।

हर विकल्प से निरुपाय होकर
होली के रंगों में कोशिश करते हैं हम,
डुबाने की खीझ, हताशा और निराशा
भुलाने को ज़िन्दग़ी के सारे ग़म।

लेकिन कब तक कच्ची इस डोर के संग
काट पाएँगे हम अपना जीवन?
कब तक यों ही बदरंग करते जाएँगे
ज़िन्दग़ी का सुंदर सुहाना हर एक रंग?

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