Friday, April 18, 1997

मेरी ज़रूरत

ज़िन्दग़ी के इस तमाशे में
जब तक ख़ुद भी कोई तमाशा बनकर
चलती हूँ, तब तक दोस्त की कमी
महसूस नहीं होती इस पथ पर।

लेकिन कभी जब बनकर मूकदर्शक
नज़र फेरती हूँ इन तमाशों पर,
मेरी अनुपस्थिति का कोई प्रभाव
नज़र नहीं आता है लोगों पर।

टीस उठती है दिल में
कि मेरी कोई नहीं पहचान।
मैं किसी की ज़रूरत नहीं हूँ
हर कोई मानो हो मुझसे अनजान।

इच्छा होती है उस वक़्त कि काश!
मैं भी होती किसी की ज़िन्दग़ी का हिस्सा,
किसी की ज़िन्दग़ी के हर पृष्ठ पर होता
उसका मुझसे जुड़ा कोई किस्सा।

हाँ, एक दोस्त की कामना है मुझे
जिसे भी हो मेरी ज़रूरत।
मेरी अनुपस्थिति पर अभाव का अहसास
हो उसकी ज़िन्दग़ी की एक हक़ीकत।

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