Saturday, December 25, 2004

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पिछड़े हुए क़ायदे थे,
कुछ बेवकूफ़ी भरे वादे थे ।
उन्हें छोड़ा ठीक, पर एक सरलता भी थी
उससे भी नाता तोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

आँसू व्यर्थ में निकलते थे,
लोग बेकार ही चिन्ता करते थे,
पर उनके पीछे अपनापन भी था,
अब मैं नहीं जोड़ जो पाई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

सर हमेशा झुकाना पड़ता था,
आवाज़ को क़ाबू मॆं लाना पड़ता था,
पर लड़खड़ाने पर किसी का हाथ तो बढ़ता था,
उससे भी मुँह मोड़ तो आई हूँ ।

कुछ पीछे छोड़ तो आई हूँ ।

Saturday, December 04, 2004

कल रात हवा बहुत सर्द थी

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

बैठी थी मैं अकेली डूबी अपनी सोच में,
कोई उपाय हो कि बीतते समय को हम रोक लें।
कि सभी सिहरा गई मुझे अनजान दिशा से आती हवा,
मानो सुना रही वो किसी का दर्द थी।

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

गुज़रते हुए वो मेरे कानों में कह गई,
"नहीं लगता तुझे, तू अपने बारे में ज़्यादा ही सोच रही?"
धिक्कार की नज़रों से देखा उसने मुझे,
याद दिलाने वो आई मुझे कोई कर्ज थी।

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

सिहरन होने पर लपेटने की कोशिश की मैंने चादर,
पर हवा तेज हो गई, उड़ा ले गई उसे बाहर,
"चादर ओढ़ कर ठिठुरने वालों को भूलना चाहती है?
भूल गई वो दिन जब तुझे उनसे ही गर्ज थी?"

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

"समय को रोककर तू उन्हें ख़ुद से दूर रखना चाहती है?
अपनी ही आत्मा को धोखा देकर निर्दोष बनना चाहती है?"
आखिर क्या चाहती थी वो मुझसे?
क्या वो बताने आई मेरा फ़र्ज़ थी?

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

कुछ सोती हुई सच्चाइयों को जगा दिया उसने
खुद को खुद से ही डर सा लगा दिया उसने,
खुशियाँ आज की सच में स्वर्ग हैं?
या वो राहें बना रही है नर्क की?

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

Sunday, November 14, 2004

उर्वशी के नाम

(इस कविता की प्रेरणा दिनकर की प्रसिद्ध रचना 'उर्वशी' पढ़ने से आई। दिनकर रचित 'उर्वशी' को जवाब देना, वह भी कविता के माध्यम से, दुस्साहस ही कहा जाएगा, किन्तु मनुष्य कभी-कभी दुस्साहस कर बैठता है। मैं भी अपवाद नहीं हूँ।)

गन्ध का कोई महत्व नहीं था
तेरे आकुल जीवन में,
पृथ्वी पर प्रतिबंध नहीं ये,
धारणा थी तेरे मन में।

सत्य है यह सिद्धांतों में,
पर हमें भी सुलभ नहीं है,
स्वर्गीय चीज़ है तू तुझे ये
धरती पर भले दुर्लभ नहीं है।

किसी समाज से बँधी नहीं तू,
पेट की चिन्ता न तुझे सताती,
स्वर्ग के रिश्ते तोड़ तभी तू
पृथ्वी पर आनंद मनाती।

अयोनिजा तू है, जन्म मे
तुझपर कोई बन्धन न डाला,
कुछ भी कर ले तू, कोई भी
व्यथित हो करने क्रंदन न वाला।

लोक-लोक में उड़ सकती तू
कोई बंध नहीं है,
तभी तो महत्वपूर्ण तेरे
जीवन में गंध नहीं है।

जन्म व कर्म के भारों के
बीच प्रेम हम हैं कर जाते,
टूक-टूक हो जाते प्राण,
सारे रिश्ते यों निभाते।

ओर अलग-अलग इन कर्तव्यों में
क्लेश जब अक्सर होता है,
असमर्थता जानकर अपनी
हृदय बहुत रोता है।

खुद की धिक्कार उस असमर्थता
पर जब सहन नहीं हो पाती है,
कोई उपाय ढूँढ़ने को हृदय की
धड़कन दौड़ लगाती है।

और समाधान उस वक़्त एक
ही आता है जीवन में,
गंधों से बहलाकर ख़ुद को
चैन आता है मन में।

अपनी व दूजों की तब हम
असमर्थता माफ़ करते हैं।
गन्ध को हृदय से गला प्रिय के
सुख की कामना करते हैं।

पर तू क्या समझेगी ये, कभी
ऐसी व्यथा दिल में सेवी है?
सच ही कहा था तूने -
तू मानवी नहीं देवी है।

ईर्ष्या कर मुझसे तो बड़ी बनेगी तू
और उज्ज्वल मेरा मान होगा,
मैं जल भी नहीं सकती तुझसे,
आहत मानव का स्वाभिमान होगा।

Thursday, November 11, 2004

प्रेरणा

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

वह जो स्वयं पीछे रहते हुए भी
किसी की कलम से निकला महाकाव्य बन जाती है,
दुनिया में अस्तित्वहीन हो भी
बड़ी-बड़ी चट्टानें पिघला पाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

वह जो सामने आए बिना भी
चित्रकार की तूलिका को गति दे जाती है,
जो खुद अदृश्य होकर भी
उस कृति में सजीव हो जाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

जो एक सरकटे के शरीर में
हज़ारों की शक्ति ले आती है,
जो एक अकेले के आगे
हज़ारों के झुका जाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

वह जिससे निद्रा-बोझिल आँखें भी
असीम ज्योति पा जाती हैं,
जो थकान से टूटे शरीर को भी
ऊर्जावान कर जाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

वह जो साधारण मानव में भी
कुछ करने का जुनून भर जाती है,
जो समर्थों से उनके छिपे हुए सामर्थ्य
का अहसास बयाँ कर जाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

जो ख़ुद कभी आगे न आई,
जिसकी सीधी गाथा न किसी ने गाई,
जो किसी के अंदर रह गई घुटकर,
पर एक रचयिता का बल उसमें गई भऱ।

जिससे निकली रचना देख
देह मेरी सिहर जाती है,
जिसके बारे में बिना जाने भी
मेरा काया उसे शीश नवाती है।

क्योंकि वह स्वयं व्यक्त नहीं हो पाती है,
शायद इसलिए वह प्रेरणा बन जाती है।

इतिहास

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जिसके लिए तुम अपना सर्वस्व गँवाते हो,
जिसके लिए लाखों का खून बहाते हो,
उसे एक मोटी सी किताब के
एक पन्ने या एक पंक्ति में समेट देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

गुप्त पत्र दुनिया से छिपा तुम भिजवाते हो,
जिसे गुप्त रखने में अपनी जान गँवाते हो,
उसे एक शीशे के बक्से में डाल
दुनिया के मनोरंजन हेतु खुले में रख देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जिसके होने-न-होने का तुम्हें आभास न हुआ,
जिसके होने पर भी होने का विश्वास न हुआ,
उसके कारणों की एक लम्बी-सी
प्रामाणिक सूची बना कर देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जिसके अच्छे या बुरे होने का कभी तुम निश्चय न कर पाए,
जिसका पक्ष-विपक्ष करते कितनों ने जीवन बिताए,
उसका वर्गीकरण कितनी ज़्यादा
आसानी से कर देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जिस विचारधारा के अस्तित्व का तुम्हें पता न था,
जिसके विरुद्ध विश्वास के ऊपर कभी विवाद होता न था,
उस विचार का प्रमाण जमा कर
बिना बात के विवाद खड़ा कर देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जो अंतःपुर व अंधी कोठरियाँ तुम बनवाते हो,
हवा या प्रकाश भी न पहुँचे, निश्चित करवाते हो,
उसे लोकतंत्र के राज में पर्यटक-स्थल
बना सबको भेंट कर देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

जिसे वह अच्छा बनाना चाहता है,
उसके सब दोष भुला देता है।
जिसे बुरा दिखाना चाहता है,
उसके दिए अवशेष मिटा देता है।
अपनी सुविधा के लिए काले और सफ़ेद
के बीच के सब रंग हटा देता है।

इतिहास बड़ी अजीब-सी चीज़ होता है।

Sunday, September 05, 2004

दो बूँद आँसू

सर दर्द से भारी था,
गला भरा-भरा था।
आँसू का वो कतरा
मानो निकल पड़ा था।

कि तभी दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ आई
दो बूँद आँसू बहाने को समय नहीं निकाल पाई।

फोन की घंटी बजी
शुभचिंतक एक था उस ओर
कुशल क्षेम पूछी गई
बातों का चला एक दौर।

मैं कुशल हूँ, खुश हूँ, ये आश्वस्त तो कर पाई
दो बूँद आँसू बहाने को पर समय नहीं निकाल पाई।

सोना भी ज़रूरी था
वर्ना कल होगी मुश्किल,
अभी नहीं सोई तो कल
जगना कैसे होगा फिर?

आँखें बंद की, कुछ देर बाद ही सही, थोड़ा सो तो पाई,
दो बूँद आँसू बहाने को पर समय नहीं निकाल पाई।

दिन बीतते जा रहे हैं,
ज़िन्दग़ी बढ़ती जा रही है,
कोई कसक है जो मुझे
अंदर-ही-अंदर खा रही है।

ना जाना उसे, ना उसकी कोई परिभाषा ही दे पाई,
दो बूँद आँसू बहाने को समय जो नहीं निकाल पाई।

Tuesday, August 24, 2004

आज मैं अकेली हूँ

मैं अकेली हूँ।

अकेलापन,
जो जंगल में रहने से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन लोगों के बीच रहने से आता है
जिनकी भाषा समझ में नहीं आती है।

अकेलापन,
जो लोगों की कमी से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन्हें समझ नहीं पाने पर
खुद पर आने वाली खीझ से आता है।

अकेलापन,
जो अकेले रहने पर नहीं आता
बल्कि वो
जो इतने सारे लोगों के बीच
ख़ुद के ग़ुम हो जाने से आता है।

अकेलापन,
जो किसी से बातें नहीं कर पाने से नहीं आता
बल्कि वो
जो उन बातों को करने की मजबूरी,
जो नहीं करना चाहती, से आता है

आज मैं अकेली हूँ।

Thursday, August 12, 2004

गुज़रा वक़्त

अभी तो फिर भी कुछ लोग
मुझे वहाँ पहचान लेते हैं,
पहले आश्चर्य, फिर खुशी से
खुद को मेरी याद दिला देते हैं।

पर यह सच है कि अब
मैं वहाँ की नहीं रही,
बावजूद इसके की जो मुझे मिला वहाँ
वो मिलेगा अब कहीं नहीं।

याद आ रहे हैं मुझे आज
उन सड़कों पर वो पहले सहमे से क़दम
कैसे उस अरसे में उनमें, जो था
निकलते वक़्त, वो भर गया था दम।

जीवन की हर रोज़ खुलती
एक नई तस्वीर, एक नई रेखा।
दुनिया को एक विस्तृत दृष्टि से
मैंने था पहली बार देखा।

दोपहर में बदलती सुबह और
हर दोपहर के बाद आती शाम,
थोड़ा मुझे बदलने में, थोड़ा वही रखने में,
करती जाती थी अपना काम।

वे ठहाके उन्मुक्त क्षणों के
कुछ दिन तो वहाँ गूँजेंगे,
फिर भले ही छिप जाएँ अतीत की परतों में
वापस आकर हम फिर उन्हें ढूँढ़ेंगे।

वे आँसू जो कभी निकले और कभी नहीं,
उस मिट्टी का जिन्होंने गीला किया था एक कोना,
शायद फिर से जी उठेंगे जब किसी और को
भी पड़ेगा उसी परिस्थिति में रोना।

वो छोटी-छोटी खुशियाँ जो मिलीं
कुछ छोटी-छोटी बातों पर,
कई बार गुदगुदा जाती हैं
थकान भऱे दिन के बाद की रातों पर।

ओर कुछ हार व असफलताएँ
जिन्होंने हताश किया, पर मजबूत भी किया,
कैसे कर्ज़ चुका पाऊँगी, जो कुछ
उन सबने मुझे है दिया।

आज बैठी-बैठी कुछ अकेले क्षणों में
याद कर रही हूँ तुम्हें, उस गुजरे वक़्त को,
एक साथ ही मुझे बना गया,
कहीं नरम, ओर कहीं सख़्त जो।

Monday, July 26, 2004

एक बार फिर

एक बार फिर,
इन जंज़ीरों को तोड़ने को जी चाहता है,
"अपने पर फैला", ये मेरा दिल कहता है।

एक बार फिर,
वो बचकानी कल्पना शांति पाने की
यथार्थवादिता को हटा पास लाने लगी।

एक बार फिर,
मेरे लिए सिर्फ साँसे लेना महत्वपूर्ण नहीं है,
लगता है जब तक न जिओ, जीवन पूर्ण नहीं है।

एक बार फिर,
इस कृत्रिमता, भाग-दौड़ से मुँह मोड़ना चाहती हूँ,
व्यावहारिकता का बंधन ख़ुद पर से तोड़ना चाहती हूँ।

एक बार फिर,
सफलता नहीं उगते सूर्य की गर्मी महसूस करना चाहती हूँ,
गर्वित नहीं जीवन से बल्कि खुश रहना चाहती हूँ।

एक बार फिर,
'विकास' के नाम की अंधी दौड़ को दुत्कारना चाहती हूँ,
इसमें फँस चुकी हूँ, पर इससे छुटकारा चाहती हूँ।

एक बार फिर,
वर्षों पहले की उस कल्पना,
जिसे मान लिया था अब बचपना,
को फिर से जीवित देखना चाहती हूँ।

एक बार फिर।

Friday, July 23, 2004

पहचान की तलाश

एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

कुछ पता नहीं कि क्या चाहती हूँ,
ये जगह बेगानी सी है ये जानती हूँ।
पर जो कुछ भी हो रहा है मेरे चारो ओर
उससे भी बेजार नहीं रह सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

मुझे सारी दुनिया नहीं जीतनी,
कोई चीज़ नहीं चाहिए कीमती।
जो छूटा है वो थका चुका था, पर जो सामने है
उसको भी स्वीकार नहीं कर सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।

भीतर की हो या हो बाहर की,
डर हो या अपेक्षा एक आहट की,
कुछ कमी है मेरे जीवन में - इस तर्क से
कुछ भी कर आज मैं तकरार नहीं कर सकती।
एक पहचान की तलाश से इनकार नहीं कर सकती।


Tuesday, July 20, 2004

अतीत का भूत

मैं समय, काल और परिस्थिति का गुलाम हूँ,
बदलते समय की मार के भोक्ता का दूसरा नाम हूँ।

मैं अतीत से सीखने की कोशिश करता हूँ,
वर्तमान के अनुसार भी ख़ुद को बदलता हूँ,
क्योंकि अतीत हमेशा सही नहीं होता,
और सही क्या है - इसका जवाब कहीं नहीं होता।

मैं निर्णय लेता हूँ, उनपर विश्वास करता हूँ,
उनसे डिगना कमज़ोरी न हो, इससे डरता हूँ,
वर्तमान में मेरा विश्वास, मेरे निर्णय सही होते हैं,
पर जब वर्तमान अतीत बन जाता है तो वे महत्व खोते हैं।

अतीत के अंधे विश्वास और भविष्य की अंधी दौड़
के बीच मैं ख़ुद को फँसा सा पाता हूँ।
एक तो पता नहीं होता है कि अब क्या सही हो,
फिर वर्षों की आदत से बदलाव से डर जाता हूँ।

खुद को मना लेता हूँ कि जो है वो सही है,
दुनिया को चिल्ला कर बताता हूँ कि कुछ बेहतर नहीं है।
अतीत से लिपटा हुआ, अतीत को ढोता हुआ
कारण बनाता रहता हूँ क्यों उससे अच्छा कुछ नहीं है।

वर्तमान के अनुसार बदलने की अब मुझमें हिम्मत नहीं होती,
जो थी कभी अपेक्षा ख़ुद से, कहीं पड़ी रहती है सोती,
जब तक कोई और वर्तमान का पारखी नहीं आता,
अतीत का भूत मुझे अंदर-ही-अंदर खाता जाता।

मैं कौन हूँ?
मैं कुछ भी हो सकता हूँ -
एक मनुष्य,
एक समाज,
एक नया विचार,
एक राष्ट्र।

हम सबका एक अतीत और एक वर्तमान होता है,
और भविष्य की आशंकाओं के बीच हमें सच खोजना होता है।

Wednesday, July 14, 2004

बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

ज़िन्दग़ी बदल ज़रूर गई है,
पर नयेपन का कोई शुरूर नहीं है,
कुछ नया सुनने-सुनाने को दिखा नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

कुछ पुरानी चीज़ें दोहराई सी लग रही हैं,
पर यादों को ताजा न कर, उनका अपमान सा कर रही हैं,
जैसे हुआ था तब, वैसे उनसे कुछ सीखा नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

नई जगह, नए चेहरे, नए नियम, नया शहर,
लोगों ने कहा अलग से होते हैं यहाँ चारों प्रहर,
अतीत से ऊब गई थी, फिर भी मन मेरा यहाँ रीता नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

एक से उद्देश्य, पाने के एक से तरीके,
देखता नहीं कोई यहाँ अलग-सा जी के,
विभिन्नताओं का रस यहाँ कोई पीता नहीं।

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं।

Sunday, April 11, 2004

कविताएँ जो किसी की समझ में नहीं आती

अनजाना सा अपना ही अस्तित्व,
टूटा, बिखरा, खंडित व्यक्तित्व,
उलझनें ओर अथाह गहराइयाँ ज़िन्दग़ी की
जन्म देती हैं

उन कविताओं को जो किसी की समझ में नहीं आती।

हाथों से फिसलता ख़ुद पर का अधिकार,
अपनी कमज़ोरियों पर मिलती ख़ुद की धिक्कारस
अविश्वास ख़ुद पर, बौनापन अपना
जन्म देता है

उन कविताओं को जो किसी की समझ में नहीं आती।

एक कमज़ोरी छिपाने पर उभरती दूसरी कमज़ोरी,
कमज़ोरियों से हार मानना जब हो जाए ज़रूरी,
आँसू ख़ुद के, थकान अपनी
जन्म देती हैं

उन कविताओं को जो किसी की समझ में नहीं आती।

थका हुआ मन, तन हताश
कोई संबल ढूँढ़ने का हारता प्रयास
थके हुए मन की हारी हुई कल्पना
जन्म देती है

उन कविताओं को जो किसी की समझ में नहीं आती।


Wednesday, March 03, 2004

मत निहारो इनको

पता है कुछ चीज़ें तुम्हारे हाथ में नहीं हैं,
इसलिए तुम असहाय हो, परेशान हो।
पर अगर सोचती हो कि इसका उपाय
तारों को एकटक देखने में है तो तुम नादान हो।

सदियों से मानव ये करता आया है,
अकेलेपन और बेबसी का दर्द भरता आया है,
अपने को भुलाकर चाँद, तारों और फूलों में कुछ पल,
शायद इस उम्मीद में कि कोई चमत्कार दे कुछ कल।

पर चमत्कार नहीं होते, मत निहारो इनको
एक और रात चली जाएगी, बोझ मिलेगा किसको?
समय ना कम पड़ जाए, जो कुछ तुम्हारे हाथ में है, वो तो करो,
जो बाहर हैं शक्ति से, उन्हें किस्मत पर छोड़ दो, मत डरो।

पता है, कुछ चीज़ें तुम्हारे हाथ में नहीं हैं,
और जी करता है कि सब छोड़कर दूर कहीं चले जाएँ,
पर मुँह नहीं मोड़ सकते हम जीवन से, आगे बढ़ते समय से,
कभी थक कर हताश होकर दुःख के दो गीत भले ही गाएँ।

असफलताएँ क्यों आती हैं?

असफलताएँ क्यों आती हैं?

क्या जीवन रूखा नहीं हो जाएगा?
क्या लक्ष्य सूखा नहीं हो जाएगा?
यदि हर कुछ मिलता गया यों ही
हर कुछ अपनी पहुँच में हो ज्योंकि।

असफलताएँ क्यों आती हैं?

कैसे ज़िन्दग़ी कभी भी नए मोड़ लेगी?
यदि सोचे रास्ते को असफलता नहीं तोड़ देगी?
कैसे वो अनसोची, अनजानी बातें होंगी?
कैसे वो अलग-सी सुबहें लाने वाली रातें होंगी?

असफलताएँ क्यों आती हैं?

कैसे हमारा मानवीय ग़रूर काबू में रहेगा?
क्या होगा यदि इन्सान हमेशा सफलता के नशे में बहेगा?
कैसे वो अपनी कमज़ोरियों का समझेगा?
कैसे वो औरों की वास्तविकता परखेगा?

असफलताएँ इसलिए आती हैं।

Saturday, February 07, 2004

थाम लो मुझे

हर गुज़रता हुआ लम्हा आज
दिलाता है मुझे ये अहसास
कि थाम लो मुझे, मैं फिसलता जा रहा हूँ।
नहीं आऊँगा लौटकर, मैं हूँ ख़ास।

रुक जाओ और एक नज़र दौड़ाओ
यहाँ गुज़ारे समय पर और खो जाओ
एक पल के लिए उन बातों में,
जो अभी तो सच हैं, पर कल पाओ न पाओ।

ये चेहरे जिनकी तुम्हें आदत है
ऐसी कि कभी लगा ही नहीं
कि ये बदल भी सकते हैं, ऐसे बदलेंगे
कि पहचान न पाओगी जो मिले भी कहीं।

ये हँसी, ये आँसू जो रोज़ की बात हैं
कल ऐसे दुर्लभ हो जाएँगे तुम सोच नहीं सकती।
बसा लो इन्हें यादों में, पथ में काम आएँगी,
गुज़रते समय को तो तुम रोक नहीं सकती।

एक बार प्यार से देखो
उन्हें भी जिनसे गुस्सा हो,
क्या पता उन्हीं की याद कल को
तुम्हारे जीवन का सबसे हसीन किस्सा हो।

हर गुज़रता हुआ लम्हा आज
भेज रहा है मुझे इन सबके पास।
कहता है थाम लो मुझे, मैं फिसलता जा रहा हूँ।
नहीं आऊँगा लौटकर मैं हूँ ख़ास।