Saturday, December 04, 2004

कल रात हवा बहुत सर्द थी

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

बैठी थी मैं अकेली डूबी अपनी सोच में,
कोई उपाय हो कि बीतते समय को हम रोक लें।
कि सभी सिहरा गई मुझे अनजान दिशा से आती हवा,
मानो सुना रही वो किसी का दर्द थी।

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

गुज़रते हुए वो मेरे कानों में कह गई,
"नहीं लगता तुझे, तू अपने बारे में ज़्यादा ही सोच रही?"
धिक्कार की नज़रों से देखा उसने मुझे,
याद दिलाने वो आई मुझे कोई कर्ज थी।

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

सिहरन होने पर लपेटने की कोशिश की मैंने चादर,
पर हवा तेज हो गई, उड़ा ले गई उसे बाहर,
"चादर ओढ़ कर ठिठुरने वालों को भूलना चाहती है?
भूल गई वो दिन जब तुझे उनसे ही गर्ज थी?"

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

"समय को रोककर तू उन्हें ख़ुद से दूर रखना चाहती है?
अपनी ही आत्मा को धोखा देकर निर्दोष बनना चाहती है?"
आखिर क्या चाहती थी वो मुझसे?
क्या वो बताने आई मेरा फ़र्ज़ थी?

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

कुछ सोती हुई सच्चाइयों को जगा दिया उसने
खुद को खुद से ही डर सा लगा दिया उसने,
खुशियाँ आज की सच में स्वर्ग हैं?
या वो राहें बना रही है नर्क की?

कल रात हवा बहुत सर्द थी।

No comments: