Sunday, September 05, 2004

दो बूँद आँसू

सर दर्द से भारी था,
गला भरा-भरा था।
आँसू का वो कतरा
मानो निकल पड़ा था।

कि तभी दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ आई
दो बूँद आँसू बहाने को समय नहीं निकाल पाई।

फोन की घंटी बजी
शुभचिंतक एक था उस ओर
कुशल क्षेम पूछी गई
बातों का चला एक दौर।

मैं कुशल हूँ, खुश हूँ, ये आश्वस्त तो कर पाई
दो बूँद आँसू बहाने को पर समय नहीं निकाल पाई।

सोना भी ज़रूरी था
वर्ना कल होगी मुश्किल,
अभी नहीं सोई तो कल
जगना कैसे होगा फिर?

आँखें बंद की, कुछ देर बाद ही सही, थोड़ा सो तो पाई,
दो बूँद आँसू बहाने को पर समय नहीं निकाल पाई।

दिन बीतते जा रहे हैं,
ज़िन्दग़ी बढ़ती जा रही है,
कोई कसक है जो मुझे
अंदर-ही-अंदर खा रही है।

ना जाना उसे, ना उसकी कोई परिभाषा ही दे पाई,
दो बूँद आँसू बहाने को समय जो नहीं निकाल पाई।

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