Friday, January 28, 2005

मै सपने क्यों देखूँ?

मै सपने क्यों देखूँ?

जब यथार्थ सपनों सा हो,
और साथ मेरे अपनॊं का हो ।
मीठा मीठा दर्द मिल जाए जब यूँ ।

मै सपने क्यों देखूँ?

रातों की प्यारी सर्द हवायें
जब मेरे तन-मन को छू जायें ।
क्यों न एकटक मैं चाँद को लेखूँ ।

मै सपने क्यों देखूँ?

प्रात-किरण खिड़की से आकर,
गीत कोई जागृति का गाकर
पूछे, "क्यों सोई है तू?"

मै सपने क्यों देखूँ?


Monday, January 24, 2005

हम दो पल चुरा लें तो?

ज़िन्दग़ी ऐसे भागती जा रही है,
रुकने का उसको समय नहीं है ।
पर थोड़ी देर ज़िन्दग़ी को अपने घर बुला लें तो?

बारिश है, बाढ़ आ सकती है,
कमज़ोर है, जान जा सकती है ।
उससे पहले दो बार सावन के झूले झुला लें तो?

ज़िम्मेदारियाँ हैं हम पर कई तरह की,
कमी है हमारे पास समय की ।
पर इस भाग-दौड़ से भी हम दो पल चुरा लें तो?

Sunday, January 23, 2005

विश्वास

कई लम्हे खुशियों के
कई पल सुख के
कई मुस्कानें रख दीं
तुमने मेरे मुख पे ।

कभी तुम्हारी प्रीत ने
दिल तोड़ा नहीं आस का ।
पर सच कहूँ? इन सबसे
बड़ा था वो एक पल विश्वास का!

Thursday, January 20, 2005

चुप रहना ही पड़ता है ।

चुप रहना ही पड़ता है।

दिल में छिपकर, हर दिन हर पल,
जो बात मुझे अंदर से खाती है,
सामने आकर बोलना चाहूँ उससे पहले
ही तुम्हें समझ में आ जाती है।

कहने को क्या बचता है?
चुप रहना ही पड़ता है।

रातों को अक्सर सपने आते हैं,
जिनमें कोई हँसता रोता है।
सुबह उठकर पता चलता है
तुमने भी वही देखा होता है।

अलग तुमसे क्या रहता है?
चुप रहना ही पड़ता है।

जो गीत मेरे दिल में रहता है,
अचानक वही गुनगुनाते हो।
जो बात मेरे मन में आती है,
जाने कब तुम ही कह वो जाते हो।

आश्चर्य मुझे तो लगता है,
पर चुप रहना ही पड़ता है।

शिकायतें नहीं कर रही मैं
मन ही मन में मुसकाती हूँ।
सच हो सकता है यह सब
सोच कर हैरान तो मैं हो जाती हूँ।

शायद तुम्हें भी कुछ ऐसा ही लगता है,
कि बहुत कुछ होने पर भी
चुप रहना ही पड़ता है।

Wednesday, January 19, 2005

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

देख रहे हो पर्वत की उत्तुंग शिखाएँ?
मानव-पथ में लाया ये कितनी बाधाएँ!
पर अपनी ऊँचाई से प्रेरित करता रहा हमेशा,
आओ पैरॊं के निशान हम उसपर अपने भी रख दें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

देख रहे हो पहाड़ों पर रहने वाले मानव भोले?
ऊँची-नीची थकाने वाली राहों पर हैं बैठे खोले,
राज़ अनेकों नए पुराने, प्रकृति ने जो दिए हमें हैं,
आओ इन संग बैठ क्षण भर हिमकणों से हम भी खेलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

खा नहीं सकते ये हम-तुम, देखो व्यंजन ये अजीबोग़रीब,
क्षणभर में ही ले आया ये, विभिन्नताओं को कितना क़रीब।
कुछ देना चाहते हैं ये, महत्व जिसका हमारी जीवन-शैली में नहीं,
आओ फिर भी भेंट इनसे प्यार भरी ये हम-तुम ले लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

कोशिश कर लो कितनी ही, भाषा ये समझ नहीं आती,
पर कोई सूत्र तो है, बात हमारी मानव बुद्धि समझ ही जाती।
कहना-सुनना इनसे कुछ है, भाषाएँ दीवार नहीं बनेंगी,
आओ परे भाषा के जाकर इनकी भी कुछ याद सँजो लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

दूर-दूर तक देखो कैसे, सागर यहाँ लहरा रहा,
लहरें निमंत्रण इसकी देतीं, हमको पास बुला रहा,
रहस्य अनगिनत हैं इसके अंदर छिपे जाने कब से,
ये रेत ज़रा टटोलें आओ हम भी सीपी मोती ढूँढ़े।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

पक्षी इतने दूर-दूर से क्यों यहाँ उड़ आते हैं?
अपनी भाषा में गाते क्यों, जाने, हमको लुभाते हैं।
अलग-सी दुनिया होगी उनकी, पर आनन्द वहाँ भी है,
आओ क्षण भर इनकी गुनगुन में हम भी खो लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

वीरान बने ये खंडहर कभी आलीशान रहे होंगे,
कोई मुस्कान खिली होगी, कुछ क्रूर ठहाके लगे होंगे,
उस समय यदि हम आते तो ये पहुँच से हमारे बाहर होते,
बीते समय का लाभ उठाकर आओ इनकी कथा टटोलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

ये कटे वृक्ष, ये बीमार से चेहरे, कुछ इनका भी संदेश है,
कैसे चकित हुऎ बैठे हैं अलग सा जॊ हमारा वेश है,
किस्मत ने यदि कृपा की है तॊ क्या हम कुछ कर सकते नहीं?
कुछ और नहीं तॊ थॊड़ी देर हम इनके भी सुख-दुख झेलें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

कितनी व्यथा, कितने आँसू, इन सबकी कोई कहानी है,
सुख-दुख तो यहाँ रहते ही हैं, ये दुनिया आनी-जानी है।
इस चक्र से निकल नहीं सकते हम, पर जी तो उसको सकते हैं,
इस दुनिया के हर कोने से हम थोड़े से सुख-दुख ले लें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।

यों तो हम दुनिया अपनी एक-दूजे तक सीमित कर सकते हैं,
पर बनेंगे छोटे से महल जो, कभी भी वे ढह सकते हैं,
बना सके दुनिया विशाल तो जीवन कभी सूना न होगा ।
इतना विशाल है विश्व सामने, क्यों न प्रेम को शरण हम दे दें।

आओ साथी, हम चल कर ये दुनिया देखें।


मुझसे मिलने आओगे ना?

मज़बूरियाँ हैं जो बाँधे हैं,
वादे हैं जो मुझे निभाने हैं,
साथ नहीं दे पाऊँगी तुम्हारा
इसके लिए माफ़ तो कर पाओगे ना?

राहें बंद हुईं तुम्हारी अगर मेरी वज़ह से
ग्लानि से भर जाऊँगी मैं ज़िंदा रह के ।
जब भी कोई नया रास्ता दिखाएगी ज़िन्दग़ी
उस पर तुम आगे तो बढ़ जाओगे ना?

और जब मुझे ऐसी ज़रूरत पड़ेगी,
कि तुम्हारी यादें ही सहारा बन सकेंगी,
उस वक्त़ मेरे सपनों में तुम
ख़ुद आगे बढ़कर आओगे ना?

काँटें बन जायेंगी जब राहों में मेरी यादें
चुभने लगें हृदय में कुछ अनकहे वादे,
उस समय अपनी और औरों की ख़ातिर
तुम मुझे भूल तो पाओगे ना?

और जब कभी छूट रही होंगी मेरी साँसें अन्तिम,
कसक और बेबसी का अहसास बढ़ता होगा हर दिन,
उस दिन एक बार फिर सहारा देने को
कुछ पल के लिए ही, मुझसे मिलने आओगे ना?

Wednesday, January 12, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (3)

मैं ख़ुद को सँभालने की कोशिश करती हूँ,
पर इस असंभव बहाव में लिए कहाँ पर जाती है मुझे?
कैसी भूलभुलैया है जहाँ एक साथ ही असीम आनंद
और डरावनी शंकाओं का अहसास करवाती है मुझे ?

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Monday, January 10, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (2)

मैं तुझे शब्दों में ढालने की कोशिश करती हूँ,
पर ख़ुद की असमर्थता पर तू क्षोभ से भर जाती है मुझे ।
और कभी अनकही बातॊं का अर्थ गुनगुना मेरे कानॊं में
बिना वज़ह आई मुस्कान से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

ठीक है तू चुप ही रह, मैं भी चुप ही बैठती हूँ;
चुप्पी में ही तू मानो सितारों से जड़ जाती है मुझे ।
पहली बार ही समझाया तूने महत्व शब्दों की असमर्थता का,
ओह! कैसे तू अक्सर एक नए अहसास से भर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Friday, January 07, 2005

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे (1)

जब भी लगता है, चीज़ें और बुरी नहीं हॊ सकतीं,
तू दे एक और बुरी ख़बर जाती है मुझे ।
और आँख-मिचौली खेलती हुई, अपनी करतूतॊं से
हर नए दिन थॊड़ा ज्यादा हैरान कर जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

मैं भागती हूँ तेरे पीछे, तुझे समझने कॊ,
पर बहरूपियॆ-सी तू हमेशा छल जाती है मुझे ।
मैं तुझे अपनी तरह देखने की कॊशिश करती हूँ,
पर छलिनी, तू उलटा बदल जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

जब कॊसती हूँ तुझे, तेरी शैतानियॊं कॊ,
तॊ एक अलग से ही रूप में नज़र आती है मुझे ।
उनींदी आँखें मेरी खुल पायें उससे पहले ही,
तकिए के किनारे रखी तेरी कॊई प्यारी चीज़ मिल जाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

तेरे बारे में मेरे मेरे क्षण-क्षण बदलते विचार से,
अपनी अस्थिरता पर खुद ही शर्म आती है मुझे ।
तुझे छॊड़ती भी नहीं मैं क्या करूँ, जैसी भी है,
जॊ भी है, तू हमेशा ही पर भाती है मुझे ।

ज़िन्दग़ी, तू बड़ा तड़पाती है मुझे ।

Sunday, January 02, 2005

नहीं, तुम दूर ही अच्छे

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

दूर जो हो तुम आँखों से
तो मन के एक निष्कलुष संसार में
तुम्हें बसा रखा है मैंने
हृदय के स्वच्छंद विहार में ।

पास आ गए तो रोज़ की हज़ारों
चिंताओं के बीच तुम्हें पाऊँगी कैसे ?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम नातों से अलग हो
रिश्तों से परे हो,
मेरे हृदय में एक प्रकाश-पुंज
या रत्न से जड़े हो ।

पास आ गए तो एक ओर तुम्हें रख
दूजी ओर कैसे निभाऊँगी रिश्ते?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

जी मचल जाता है तुम्हें याद करते ही,
सिहर जाती हूँ ख्यालों में ही तुम्हें महसूस कर ।
स्वप्नों में भी तो सताते रहते हो,
बहरूपिये सा कोई रूप धर ।

पास आ गए तो इस हृदय की
धड़कन तेज होने से बचाऊँगी कैसे?

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।

तुम स्वप्न-से सुंदर हो,
कल्पनाओं-से मोहक हो,
क्लेश भरे मेरे जग से दूर
धैर्य व शांति के द्योतक हो ।

पास आ गए तो विश्वास नहीं कर पाऊँगी
कि इस जग के हो, फिर भी हो इतने सच्चे ।

नहीं, तुम दूर ही अच्छे ।