आदमी क्या है?
आदमी क्या है?
एक पुतली चलती-फिरती,
या एक लहर उठती-गिरती,
या एक हाड़-माँस की मिट्टी का ढाँचा,
जिसमें बना हुआ है हृदय-रूपी एक खाँचा,
जिसमें सबके लिए भरी हुई है नफ़रत,
सैनिक नहीं भरी है मानव-बम बनने की हिम्मत।
इतनी हिम्मत है उसमें कि दे सकता है शहादत,
पर उसमें वतन नहीं, द्रोहियों के लिए है मरने की आदत?
नहीं, ये मानव हो नहीं सकता,
जो मानव के दुख में रो नहीं सकता,
मानव के अंतर का नहीं यह रूप है,
अंतर्मन सुंदर पर उसका बाह्य रूप कुरूप है।
यह रूप बनाने वाला कोई मानव नहीं दानव है,
उसके षड्यंत्र में फँस गया ये मानव है,
मनुष्य रूप में पृथ्वी पर आकर मानव को कर रहा बर्बाद,
हमारी बर्बादी का जश्न मनाकर वह हो रहा आबाद,
उसने मानव की मानवता को सुला दिया है,
मानवता को दानवता में घोल-मिला दिया है,
उस दानव को हम जानते हैं,
वह दानव है हम मानते हैं,
फिर क्यों उसके चंगुल से हम छूटना नहीं चाहते हैं,
मानते क्यों नहीं उसके और हमारे जुदा-जुदा रास्ते हैं?
अब वक़्त आ गया है उठने का,
अब नहीं समय है रुकने का,
आज मानव को मानव से मोहब्बत सिखलानी है,
आगे बढ़ने की सही राह उन्हें दिखलानी है।
2 comments:
क्या वाकई यह प्रविष्टि १९९६ की है? जैसा कि ऊपर दिनाँक में दर्शाया गया है।
प्रविष्टि तो नहीं किन्तु कविता 1996 की ही है। क्योंकि मैं अपनी कविताएँ इस blog पर स्थानांतरित कर रही हूँ, मैंने सोचा कि उनको कविता के लिखे जाने के दिन के अनुसार ही व्यवस्थित कर दूँ।
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